समाज में हिंसा क्यों बढ़ रही है (Why increasing violence in Indian society)

 

#Rajasthan_Patrika

हिंसा और भय का रिश्ता एक अर्थ में परस्परपोषी रिश्ता है। दोनों एक-दूसरे को बढ़ाते हैं। हिंसा घटना से पहले हमारे मन में घटित होती है। हिंसा पर मनोवैज्ञानिक और तंत्रिका वैज्ञानिक (न्यूरोलॉजिकल) अध्ययनों का निष्कर्ष है कि मनुष्य में हिंसा करने का सामथ्र्य तो है, लेकिन यह उसका अन्तर्जात स्वभाव नहीं है। वह किसी-न-किसी प्रकार के बाह्य कारण से उत्तेजित और सक्रिय होती है।

इसका तात्पर्य यह है कि यदि समाज में हिंसा को उत्तेजित करने वाली परिस्थिति या परिवेश न हो तो ऐसे समाज में हिंसा न्यूनतम होगी – कभी-कभी केवल वैयक्तिक स्तर पर – उसके सामूहिक रूप लेने की सम्भावना शून्यवत होगी। नृतत्वशास्त्री ब्रॉस डी बोंटा ने शोध के दौरान ऐसे सैंतालीस जनजातीय समाज खोजे हैं, जहां हिंसा लगभग अनुपस्थित है। यदि हिंसा मनुष्य के स्वभाव की अनिवार्यता होती तो ऐसा नहीं हो सकता था – बल्कि अन्य प्रकार के समाजों में भी प्रत्येक व्यक्ति हिंसक होता। लेकिन ऐसा नहीं है।

इसलिए भारतीय समाज में बढ़ती हुई सामूहिक हिंसा को देखते हुए उन स्थितियों का विवेचन जरूरी है, जिनके कारण समाज में हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं—कभी गोरक्षा, कभी बच्चा चोरी, कभी राष्ट्रवाद, तो कभी विचारधारा के नाम पर। यह हिंसा अफवाहों के आधार पर निरपराध लोगों पर की गई हिंसा के रूप में भी प्रकट होती है तो कभी जातिगत या सम्प्रदायगत विद्वेष के कारण। वह सदा नियोजित अथवा किसी साजिश का परिणाम ही नहीं होती है – यद्यपि कभी-कभी ऐसा भी होता है।

  • आजकल, सामान्यत: सोशल मीडिया को ऐसी सामूहिक हिंसा का जिम्मेदार बताया जाता है और उस पर नियंत्रण की मांग की जाती है—जो एक हद तक सही मानी जा सकती है। लेकिन यदि समाज के मन में धीरे-धीरे हिंसक भावनाएं जमा न होती गई हों तो वे अचानक इस तरह नहीं फूट पड़तीं। किसी भी घटना के कुछ तात्कालिक कारण भी होते हैं, लेकिन अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं वे कारण जो धीरे-धीरे असंतोष और क्रोध पैदा करते रहते हैं और किसी भी छोटी-सी तात्कालिक घटना के बहाने से हिंसक रूप में फूट पड़ते हैं।
  • भय और हिंसा का परस्परपोषी रिश्ता है। भारतीय समाज में भय की क्या परिस्थितियां हैं, जो अचानक सामूहिक हिंसा के रूप में फूट पड़ती हैं। सच तो यह है कि औसत भारतवासी व्यवस्था से अपने को न केवल ठगा हुआ महसूस करता और इस कारण एक असुरक्षा-ग्रंथि का शिकार है। बल्कि वह कहीं-न-कहीं इस बात पर विश्वास खोता जा रहा है कि व्यवस्था उसके हितों की, उसके जीवन की रक्षा करने में कोई वास्तविक रुचि रखती है।
  • व्यवस्था के प्रति उसका यह अविश्वास उसके भीतर और भय पैदा करता है, जिसके कारण वह अपने द्वारा की जा रही हिंसा को आक्रामक नहीं बल्कि आत्मरक्षात्मक मान कर उसे अपने मन में वैधता दे देता है। फिर मौका मिलते ही किसी छोटी-सी घटना पर भी समूह में शामिल होकर उसका यह भय, यह असुरक्षा-ग्रंथि हिंसक आचरण में तब्दील हो जाती है। वह कानून इसलिए भी समूह के रूप में अपने हाथों में लेने लगता है क्योंकि उसे विश्वास नहीं है कि व्यवस्था अपराधी को दंडित करेगी या समाज में अपराध नहीं होने देगी। जहां आए दिन राजनेताओं, नौकरशाहों और अपराधियों की मिलीभगत (नेक्सस) आम चर्चा में हो, वहां औसत आदमी इन्हीं लोगों द्वारा चलाई जा रही व्यवस्था पर कैसे भरोसा कर सकेगा। राजनीति में अपराधियों के प्रभाव-दबाव के बारे में तो सब जानते ही हैं।
  • सामान्य जनता में आर्थिक असुरक्षा, बेरोजगारी या अल्प रोजगार, किसानों की आत्महत्याएं, भूमंडलीकरण और मानव-निरपेक्ष तकनीकी आदि समस्याएं और उनके प्रति व्यवस्था की उदासीनता भी एक असुरक्षा-बोध पैदा करती है, जो अंतत: किसी भी बहाने से विस्फोटक रूप धारण कर लेता है। इसलिए, असल समस्या समाज के मन में बढ़ रहा विफलता-बोध, असुरक्षा, व्यवस्था के प्रति अविश्वास आदि वे मुख्य कारण हैं, जो हमें भीतर से हिंसक बनाते हैं और जिसकी अभिव्यक्ति किसी भी बहाने से हो सकती है।

यह ठीक है कि उसे नियंत्रित करने के प्रशासकीय उपाय भी किए ही जाने चाहिए। लेकिन, वह केवल लक्षणों को दबाना ही होगा, बीमारी का वास्तविक उपचार नहीं। कारणों को मिटाए बिना केवल लक्षणों को दबाना रोग को अंदर ही अंदर बढ़ाता रहता है। वास्तविक उपचार है नीतियों, कार्यक्रमों और आचरण के माध्यम से सुरक्षा और अपने प्रति विश्वास पैदा करना। व्यवस्था और राजनीति के प्रति अविश्वास अंतत: लोकतंत्र के लिए भी अच्छा नहीं है। क्या हमारी राजनीति और व्यवस्था कभी इसे समझेंगे

 

सोशल मीडिया, अफवाहें और अकसर राजनीति भी अंदर बढ़ते इस रोग की अभिव्यक्ति साम्प्रदायिकता, हिंसक आंदोलनों, जाति-विद्वेष और समूह-हिंसा के विविध रूपों में इसलिए कर पाते हैं कि रोग समाज के मन में घर कर रहा है। प्रत्येक हिंसा अंतत: आत्महिंसा होती है। असुरक्षा-बोध से उपजा भय और विफलता-बोध ही आत्महिंसा के कारण होते हैं जो न केवल व्यक्ति-स्तर पर प्रतिफलित होते हैं बल्कि सामूहिक स्तर पर भी विस्फोट करते हैं

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