- किसी भी अर्थव्यवस्था में ग्र्रामीण और शहरी क्षेत्र आर्थिक, वित्तीय और सामाजिक रूप से आपस में गुंथे होते हैं। आदर्श स्थिति तो यह होती है कि संसाधनों और सेवाओं का दोनों क्षेत्रों में संतुलन स्थापित होना चाहिए। दुर्भाग्य से भारत, चीन जैसे विकासशील देशों में यह विडंबना दिखती है। इन देशों ने तेज गति से औद्योगिकीकरण में अपने ग्र्रामीण क्षेत्र के अतिरिक्त श्रम और संसाधनों को शहरी क्षेत्र में लगा दिया। लिहाजा शहरी क्षेत्र के इस असंगत विकास का ग्र्रामीण क्षेत्र को बड़ा खामियाजा चुकाना पड़ा।
=>तेज औद्योगिकीकरण की चाहत:-
- ताजा-ताजा आजाद हुए देश ने अपनी पहली तीन पंचवर्षीय योजनाओं (1951-66) के तहत खुद को आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दिया। लिहाजा द्रुतगति से औद्योगिकीकरण को प्राथमिकता मिली। विकास की इस रणनीति में शहरी उद्योगों में भारी निवेश की जरूरत हुई। यह जरूरत कृषि क्षेत्र से पूरी की गई। साल दर साल ग्रामीण क्षेत्र और कृषि के मद में आवंटित होने वाली राशि की मात्रा घटती गई।
=>कृषि नीति का बदला रुख:-
- इस रणनीति के तहत कृषि नीतियों को इस प्रकार से संयोजित किया गया जिससे वे शहरों के लिए सहूलियत वाली हों। औद्योगिक विकास के सस्ती खाद्य वस्तुओं और सस्ती मूल जरूरतों को मुहैया कराने के लिए खेती उत्पादों की कीमतों को कृत्रिम रूप से नीचे रखा गया और मात्रात्मक प्रतिबंधों और अधिमूल्यित विनिमय दरों के जरिए कृषि निर्यात पर भी रोक लगी रही। कमोबेश शहरी इलाकों और खाद्य संकट वाले क्षेत्रों में मूल खाद्य उत्पादों को घटी दरों पर उपलब्ध कराया जाता रहा।
=>खेती पर जोर:-
- पिछली सदी के सातवें दशक के मध्य में भारत सरकार ने कृषि क्षेत्र के विकास को प्राथमिकता में लिया। लिहाजा ऐसी कृषि रणनीति अपनायी गई जिसका उद्देश्य कृषि क्षेत्र की उत्पादकता को बढ़ाना रहा। इसके तहत विभिन्न कृषि समर्थन मूल्यों वाली प्रणाली और सब्सिडी दिए जाने का प्रावधान शुरू किया गया। इसी ने भारत में हरित क्रांति को आकार दिया। ग्र्रामीण क्षेत्रों के लघु और कुटीर उद्योगों पर भी ध्यान केंद्रित किया गया। सस्ती दरों पर कर्ज देने सहित तमाम उपाय ग्र्रामीण क्षेत्रों के उद्योगों के विकास हेतु किए गए।
=>सुधारों का दौर:-
- 1991 की शुरुआत में भारत ने उद्योग, विनिमय दर, विदेश व्यापार, और निवेश जैसे गैर कृषि क्षेत्रों में व्यापक आर्थिक और ढांचागत सुधारों की शृंखला अपनायी। हालांकि ये सुधार गैर कृषि क्षेत्र में लागू किए गए लेकिन कम से कम दो तरीकों से इसने कृषि क्षेत्र को भी प्रभावित किया।
- >>पहला: 1991 से 93 के दौरान जो सुधार अपनाए गए उससे तेज आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ। लिहाजा प्रति व्यक्ति आय में इजाफा हुआ। इन सुधारों से खाद्य पदार्थों की मांग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। इसने लोगों की खाद्य मांगों में विविधता लाने का काम किया। लिहाजा गैर खाद्यान्न फसलों जैसे फल, सब्जी, मांस, पोल्ट्री और डेयरी उत्पादों की मांग के साथ एक नया मध्य वर्ग उभरा।
->>दूसरा: औद्योगिक संरक्षण में गिरावट ने उल्लेखनीय रूप से उस क्षेत्र के लिए प्रोत्साहन दिए जाने वाले ढांचे का सूत्रपात किया। अंतिम दशक के दौरान कृषि और औद्योगिक कीमतों के मध्य कारोबार की दशाओं में काफी सुधार हुआ। इस सुधार ने किसी उद्योग से संबंधित प्राथमिक क्षेत्र के मुनाफे में वृद्धि किया। नतीजतन कृषि में निजी निवेश उल्लेखनीय रूप से बढ़ा और लगभग सरकारी निवेश का दोगुना हो गया। ये निजी निवेश सीधे बागवानी, पोल्ट्री, मत्स्य, दुग्ध और अंडे जैसे उत्पादों में हुए।
=>सरकार का शहर प्रेम:-
- इन सब सुधारों के बावजूद सरकारों की वित्तीय और निवेश नीतियां अभी भी शहरी क्षेत्रों की ओर ही उन्मुख रहीं। संरचनात्मक समायोजन नीति (एसएपी) के तहत हुए नए निवेश ज्यादातर शहरी क्षेत्र में हुए। कमोबेश सरकारी नीतियां, सब्सिडी, वित्तीय प्रोत्साहन का लक्ष्य एसएपी के तहत कृषि से हटकर उद्योगों की तरफ हो गया।
=>विडंबना:-
- सरकार द्वारा स्वास्थ्य क्षेत्र को दी जाने वाली सब्सिडी में शहरी क्षेत्र बाजी मारता गया जबकि ग्रामीण इलाकों की बेसिक स्वास्थ्य सेवाएं इस भेदभाव से पिछड़ती गईं। भले ही देश की 65 फीसद जनता ग्रामीण इलाकों में रहती रही हो, लेकिन उसके हिस्से में स्वास्थ्य सब्सिडी का केवल 20 फीसद आता था। यही हाल शिक्षा का भी रहा।