नई पूंजी नहीं बल्कि नीतिगत हल जरूरी

 

जैसे-जैसे बैंकिंग संकट हमारे सामने आता जाएगा, बैंकों के पास शेयर पूंजी की कमी होती जाएगी। करदाताओं से यह मांग की जाएगी कि वे निजी या सरकारी बैंकों में पूंजी निवेश करें। देश का राजकोष ऐसा बोझ सहने की स्थिति में नहीं है। यह धन का दुरुपयोग होगा। हमारे पास फिलहाल समय भी है और इस समस्या को जड़ से समाप्त करने का अवसर भी।

Condition of Indian Banking


देश के बैंकों की स्थिति ऐसी है कि वे 100 रुपये के लिए 5 रुपये बतौर शेयर पूंजी और 95 रुपये का जमा इस्तेमाल करते हैं। आगे इस राशि को विभिन्न जगहों पर निवेश किया जाता है। जबकि 5 रुपये से अधिक का नुकसान किसी बैंक को दिवालिया बना सकता है। अगर हम अनुमान लगाएं कि एनपीए (फंसे हुए कर्ज) की वसूली का औसत 20 फीसदी है तो जब किसी बैंक का वास्तविक एनपीए कुल संपत्ति का 6 फीसदी हो जाता है तो बैंक नाकाम हो जाता है। देश के कई बैंक इन दिनों ऐसी ही स्थिति में हैं। अब यह दुहाई देनी शुरू की जाएगी कि करदाताओं के पैसे से नई इक्विटी पूंजी इन नाकाम बैंकों में डाली जाए। क्या यह राजकोषीय संसाधनों का सही इस्तेमाल है?

How much money to recover from Bankruptcy shock

  • हमारे सार्वजनिक वित्तीय संसाधन इस झटके के लिए तैयार नहीं हैं। कोई नहीं जानता है कि कितने धन की आवश्यकता है लेकिन अनुमान है कि यह राशि जीडीपी के 4 से 10 फीसदी के बीच हो सकती है।
  • मध्यम अवधि की राजकोषीय नीति बीते कुछ सालों में इसके लिए तैयार नहीं हुई है। देश में सरकार के ऋण लेने के तौर तरीकों को देखते हुए ऋण में ज्यादा इजाफा करना मुश्किल नजर आता है। अभी हमारे यहां सार्वजनिक ऋण प्रबंधन एजेंसी (पीडीएमए) के गठन तथा आधुनिक ऋण व्यवस्था तैयार करने में भी वक्त है। अल्पावधि में घाटे में अधिक इजाफा करना नीति निर्माताओं के मन में कतई नहीं होगा।
  • दूसरी बात, अगर यह व्यवहार्य हो भी तो क्या ऐसा करना उचित होगा? देश में फंड की मार्जिनल सोशल कॉस्ट तकरीबन 3 है। इसका अर्थ यह हुआ कि सरकारी व्यय के 1 रुपये की सामाजिक लागत 3 रुपये है। क्या हमें बैंकों को 10 लाख करोड़ रुपये देने के लिए समाज पर 30 लाख करोड़ रुपये का बोझ लादना चाहिए? यह पैसे का उचित इस्तेमाल नहीं प्रतीत होता है। दिल्ली मेट्रो के शुरुआती तीन चरण के चलते इस व्यय में 7 खरब रुपये का इजाफा हुआ। कहा जाता है समृद्धि के लिए व्यापक बैंकिंग व्यवस्था आवश्यक है और इसलिए हमें यह बरदाश्त करना चाहिए। इस धारणा पर सवाल उठाए जाने चाहिए।

हमें बैंकिंग संकट के संदर्भ में नीतिगत विफलताओं से निपटने की आवश्यकता है, बजाय कि करदाताओं पर बोझ डालने के।

हम खुशकिस्मत हैं कि हमारे यहां छोटी सी बैंकिंग व्यवस्था है। सभी बैंकों ने गैर खाद्य क्षेत्र में जो ऋण दिया है वह 76 लाख करोड़ रुपये है। इससे तुलना करें तो केवल शीर्ष 2,429 कंपनियों के पास 127 लाख करोड़ रुपये की शेयर पूंजी थी। जापान और चीन जैसे देशों में बैंकिंग संकट कहीं अधिक जटिल समस्या रहा है क्योंकि वहां बैंक ऋण कहीं अधिक प्रभावशाली कारक था। जबकि भारत की वित्तीय व्यवस्था बाजार के दबाव वाली है और यहां बदलाव की गुंजाइश है।

Need to learn from history

भारत के लंबे ऐतिहासिक अनुभव को देखें तो गैर खाद्य क्षेत्र में ऋण का बेहतर औसत करीब 11 फीसदी रहा है। अगर 4 फीसदी मुद्रास्फीति को लक्ष्य मानकर चला जाए तो इस क्षेत्र में सालाना 15 फीसदी की वृद्घि की आवश्यकता है। अगर बैंकिंग क्षेत्र ही संकट में आ जाएगा तो हमें गैर खाद्य ऋण क्षेत्र में बमुश्किल शून्य फीसदी की वृद्घि हासिल होगी। ऐसे में अर्थव्यवस्था में हर वर्ष 11.5 लाख करोड़ रुपये की नकदी की कमी आएगी। क्या हमारे पास ऐसे उपाय हैं जिनकी मदद से इसकी भरपाई की जा सके?
नीति निर्माताओं के बाद इस बात के पर्याप्त अवसर हैं कि वे अधिक से अधिक पूंजी को गैर बैंकिंग वित्त के क्षेत्र में लाएं। इसमें शेयर बाजार को तैयार करना, बॉन्ड बाजार का निर्माण, बाजार आधारित पूंजी की आवक को उदार बनाना, गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को उदार बनाना और वित्तीय क्षेत्र में तकनीक के इस्तेमाल से फिनटेक क्रांति की गुंजाइश बनाना आदि शामिल हैं। ऐसे सुधार कोई दूर की कौड़ी नहीं हैं जिनकी मदद से 11.5 लाख करोड़ रुपये सालाना जुटाए जा सकें। अगर ऐसा किया जा सका तो आईसीयू में पड़े बैंकिंग को उबारा जा सकता है।

Market Dominance

हमारी वित्तीय व्यवस्था बाजार के दबदबे वाली है और बैंक ऋण वृद्घि का अंतर बहुत अधिक चौंकाने वाला नहीं है। बैंक ऋण वृद्घि के शून्य प्रतिशत होने पर भी हम बचे रह सकते हैं। इसके लिए हमें उन नीतिगत पहल का प्रयोग करना होगा जिनकी मदद से 11.5 लाख करोड़ रुपये की पूंजी सालाना जुटाई जा सके। बैंकिंग संकट एक समस्या है लेकिन इसका असर हमारे वृहद आर्थिक हालात पर नहीं पडऩा चाहिए। जरूरत इस बात की है कि हम सफलता की उन दास्तान पर गौर करें जो अतीत में हमारे सामने गुजरीं।
वर्ष 2001 में हमें यूटीआई की समस्या का सामना करना पड़ा था। उस वक्त वित्त मंत्रालय ने क्या किया था? आधी लागत करदाताओं ने वहन की, यूटीआई अधिनियम को समाप्त किया गया और उसके व्यवहार्य हिस्से का निजीकरण कर उसे सेबी के नियमन के अधीन किया गया। सेबी के नियम मजबूत किए गए ताकि पुराने यूटीआई की गलतियां थामी जा सकें। वर्ष 2001 के बाद से म्युचुअल फंड की कोई दिक्कत नहीं आई।

उस वक्त शेयर बाजार में क्या दिक्कत थी? वित्त मंत्रालय ने क्या किया? पुरानी बदला ट्रेडिंग का काम बंद किया गया और डेरिवेटिव ट्रेडिंग की शुरुआत की गई। इसके लिए एससी (आर) अधिनियम में संशोधन आवश्यक था। बीएसई को अंशधारकों, प्रबंधकों और कारोबार करने वालों के लिहाज से बांटा गया। तब से अब तक देश में शेयर बाजार को लेकर कोई संकट नहीं आया। हमने केवल करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल करके यथास्थिति नहीं चलने दी बल्कि हमने समस्या की जड़ पर प्रहार किया। इस स्तर का कामकाज वित्त मंत्रालय ही संभाल सकता है। जहां लाखों करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है वहां समुचित हिसाब-किताब आवश्यक है। देखना यह होगा कि चूक कहां हुई है? हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसा दोबारा दोहराया नहीं जाए।

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