- कृषि में पहले जो बदलाव की जरूरत महसूस की जा रही थी, उसका मुख्य संदर्भ था कि किसी तरह किसानों का संकट दूर हो. हमारे देश में आजीविका के लिए सबसे अधिक परिवार कृषि क्षेत्र से ही जुड़े हुए हैं. अत: किसानों के आर्थिक संकट का समाधा
न देश में खुशहाली लाने के लिए जरूरी है. तथा देश में खाद्य सुरक्षा प्राप्त करने की दृष्टि से भी उचित हैंI
- हाल के समय में कृषि नीति में बदलाव की जरूरत इस कारण और बढ़ गई हैं कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन कम करने पर जोर दिया जा रहा है.
-> क्या ही अच्छा हो यदि इन दो उद्देश्यों को एक साथ पूरा किया जा सके. ऐसी नीतियां अपनाई जाएं जिनमें एक ओर तो किसानों के संकट का समाधान हो तो दूसरी ओर ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम हो जाए.
- पहले किसान के संकट के समाधान की बात करें, तो कुछ लोग किसान को मिलने वाली कीमत बढ़ाने पर जोर देते हैं, जबकि कुछ किसान का खर्च कम करने की बात करते हैं. किसान को अपने उत्पाद की न्यायसंगत कीमत तो अवश्य मिलनी चाहिए, पर इसमें वृद्धि एक सीमा तक ही संभव है.
- वजह है कि खाद्यों की कीमत एक सीमा तक ही बढ़ाई जा सकती है. खाद्य सुरक्षा का ऐसा कानून बन चुका है, जो मुख्य अनाज बहुत कम कीमत पर अधिकांश लोगों को उपलब्ध करवाने के लिए प्रतिबद्ध है. इसके लिए सब्सिडी एक सीमा तक ही बढ़ाई जा सकती है. अत: अधिक ध्यान इस ओर देना चाहिए कि किसानों के खर्च को कम किया जाए.
- इसके लिए सरकार को दो तरह के प्रयास करने चाहिए. पहला तो यह कि सरकार नमी व जल संरक्षण, लघु सिंचाई, तालाबों व परंपरागत जल स्रेतों की रक्षा, स्थानीय प्रजातियों के पेड़ों को पनपाने, प्राकृतिक वनों व चरागाहों की रक्षा का एक बड़ा कार्यक्रम अपनाए.
- सरकार के प्रयास का दूसरा पक्ष यह होगा कि वह जो धन रासायनिक खाद, रासायनिक कीटनाशक व जंतुनाशक दवाओं, ट्रैक्टर, हारवेस्टर आदि महंगे उत्पादों या संयंत्रों पर सब्सिडी व लोन देने के लिए खर्च करती है, उसका उपयोग कंपोस्ट खाद, हरी खाद, स्थानीय प्रजातियों के पशुओं, परंपरागत बीजों के बैंक, स्थानीय संसाधनों के बेहतर उपयोग, मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन व आग्रेनिक तत्व बढ़ाने के लिए खर्च करे.
- कीड़ों व बीमारियों से रक्षा के ऐसे उपाय हों जिनमें जहरीले रसायनों का उपयोग न हो. महंगी मशीनों के स्थान पर ऐसे औजारों व तकनीकों का प्रसार किया जाए जो छोटे किसानों के अनुकूल हों.
- यदि सरकार अपनी नीति में ऐसे बदलाव करेगी तो किसानों के लिए संभव होगा कि वे आत्मनिर्भर व सस्ती तकनीक को अपनाकर पर्याप्त उत्पादन कर सकें. ये तकनीकें पर्यावरण की रक्षा के अनुकूल होंगी. इनकी सफलता व कम लागत का आधार यह होगा कि ये स्थानीय निशुल्क संसाधनों जैसे विभिन्न पेड़-पौधों, फसल-अवशेषों आदि का बेहतर उपयोग करेंगी.
- चूंकि इन तकनीकों का खर्च बहुत कम है, अत: इनमें कर्ज व ब्याज के जाल में फंसने की संभावना बहुत कम है. इनसे अच्छी गुणवत्ता का उत्पादन मिलता है. अत: अनेक ग्राहक इसके लिए स्वयं बेहतर कीमत देने के लिए भी तैयार रहते हैं.
- इन तकनीकों में जहरीले रसायनों का उपयोग नहीं होता. अत: इनसे जल प्रदूषण, नाइट्रेट की अधिकता, मिट्टी प्रदूषण, खाद्य प्रदूषण व स्वास्थ्य की क्षति का खतरा न्यूनतम होता है. इनसे किसान के मित्रों जैसे तितलियों, मधुमक्खियों, भंवरों, विभिन्न पक्षियों की क्षति का खतरा भी न्यूनतम होता है.
- एक बड़ी बात यह कि इन तकनीकों से ही ग्रीनहाऊस गैस के उत्सर्जन को कम करने का उद्देश्य भी पूरा होता है. ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम करने के लिए जरूरी है कि फॉसिल फ्यूल यानी जीवाश्म ईधन जैसे तेल, कोयले, गैस का उपयोग कम किया जाए. रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाओं, जंतुनाशक दवाओं में फॉसिल फ्यूल का काफी उपयोग होता है. इनका कृषि में उपयोग कम होने से ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा.
- इसके अतिरिक्त इनके उपयोग से मिट्टी में मौजूद असंख्य जीवाणु मारे जाते हैं, मिट्टी का आग्रेनिक तत्व व ह्यूमस बहुत कम हो जाता है. इन आग्रेनिक तत्वों व जीवाणुओं में ही कार्बन सोखने की बहुत क्षमता होती है. दूसरी ओर, आग्रेनिक व प्रकृति की रक्षा करने वाली खेती से मिट्टी के आग्रेनिक तत्व फिर से समृद्ध होने लगते हैं, और उसमें असंख्य जीवाणु फिर लौटते हैं. अत: ऐसी तकनीकों को अपनाने से मिट्टी में कार्बन सोखने की क्षमता बहुत बढ़ जाती है.