बैंकिंग नियमन पर आरबीआई दे ध्यान

 

NPA crisis is not a problem of one night. RBI and top management of banks are responsible. RBI didn't carry out its regulatory responsibility in a good way and trapped in Regulatory capture.

#Business_standard

सबप्राइम इन्फ्रास्ट्रक्चर: क्रोनी कैपिटलिज्म इन पब्लिक सेक्टर बैंक्स का जिक्र करते हुए गजेंद्र हल्दिया ने कहा कि बैंकों को करीब 6 लाख करोड़ रुपये के नुकसान की आशंका है। रघुराम राजन ने गजेंद्र हल्दिया कि  बात स्वीकार की और उन उपायों का ब्योरा दिया जो आरबीआई ने फंसे हुए कर्ज (एनपीए) से निपटने के लिए किए थे। मेरा मानना था कि ये कदम अपर्याप्त ही नहीं थे बल्कि इनको बहुत देर से भी उठाया गया था।

Management was on fault

  • निस्संदेह इन बड़े नुकसानों के लिए बैंकों का वरिष्ठ प्रबंधन ही उत्तरदायी रहा है।
  • इन बैंकों के स्वामी के रूप में सरकार भी समस्या का अंग रही है। इन बैंकों के प्रबंधन और स्वामी की नाकामियों को थामने के लिए आरबीआई बचाव की आखिरी सीमा था क्योंकि उसका दर्जा स्वतंत्र नियामक का है। लेकिन ऐसा नहीं हो सका।
  • उसने यह दावा अवश्य किया कि उसे बाहरी वित्त के संकट का प्रबंधन करने में सफलता मिलती आई है लेकिन आरबीआई एनपीए के इस आंतरिक संकट से निपटना तो दूर, उसका समय पर पता तक लगा पाने में नाकाम रहा।
  • सच तो यह है कि अगर देश के बैंकों की इस खस्ता हालत के लिए किसी एक संस्थान को उत्तरदायी ठहराना हो तो वह आरबीआई ही होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि वह बैंकिंग क्षेत्र का सांविधिक नियामक भी है। उसने प्रभावी मानक और दिशानिर्देश तय करने चाहिए थे और समय पर समस्या का पता लगाकर बचाव के उपाय करने चाहिए थे।
  • नियामक के सचेत न रहने के कारण बैंक आगे बढ़ते गए और उनको भारी नुकसान उठाना पड़ा। अब इसका असर रोजगार और आय पर पडऩे लगा है। सरकारी बैंकों को बचाने के लिए जनता को करीब 6 लाख करोड़ रुपये का बोझ सहना होगा। इसके बावजूद सरकार और आरबीआई में किसी को जवाबदेह नहीं बनाया गया।

Problem is not of one night

समस्या रातोरात नहीं पनपी।

  • बिजली कंपनियों और राजमार्ग परियोजनाओं को कई लाख करोड़ रुपये मूल्य का ऋण दिया गया। ऐसे ऋण प्राय: सीमित संसाधन वाले माने जाते हैं क्योंकि बैंकों के पास इनके बदले में कोई सुरक्षा नहीं होती है। ये ऋण राजस्व मिलने के अग्रिम अनुमान पर दिए जाते हैं।
  • विकसित देशों में ऐसे ऋण देने के पहले कड़ी जांच प्रक्रिया अपनाई जाती है ताकि किसी तरह का जोखिम न रहे। भारतीय बैंक और आरबीआई ऐसा व्यवहार अपनाने में नाकाम रहे। मिसाल के तौर पर 1,000 करोड़ रुपये की लागत वाली राजमार्ग परियोजना को मंजूरी मिलने के बाद उसकी संशोधित लागत 1,700 करोड़ रुपये कर दी गई। बैंक बोर्ड ने बढ़ेचढ़े ऋण को मंजूरी दी। यहां तक कि आरबीआई की नियामकीय जांच भी इस गड़बड़ी को पकड़ पाने में नाकाम रही। जाहिर है यह फंसे हुए कर्ज की शुरुआत थी।
  • बिजली परियोजनाओं की बात करें तो बढ़ी हुई पूंजीगत लागत से इतर यहां बैंकों ने एक स्थायी ऊर्जा आपूर्ति समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए जबकि इसके बिना कोई बिजली परियोजना शुरू नहीं की जा सकती। विचित्र बात है कि बिजली वितरण कंपनियों के साथ हुए कई बिजली खरीद समझौतों (पीपीए) में गलत तरीके से ईंधन मूल्य जोखिम को निजी उत्पादकों के हवाले कर दिए गए। यह आम चलन के विपरीत था। समझदारी का तकाजा है कि ऐसी अस्थायी ईंधन आपूर्ति व्यवस्था वाली परियोजनाओं को अव्यवहार्य माना जाए। लेकिन बैंक उस मूलभूत गड़बड़ी से आंखें मूंदे रहे।
  • परियोजनाओं को की गई ऐसी गैरजवाबदेह फंडिंग की भरपाई के लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सरकारी मदद के रूप में करदाताओं को 3 लाख करोड़ रुपये से अधिक की धनराशि चुकानी होगी। देश भर में बिजली वितरण कंपनियों को दिए गए बैंक ऋण की भरपाई के लिए भी लगभग इतनी ही राशि का बोझ करदाताओं को वहन करना होगा।
  • देश की तमाम बिजली वितरण कंपनियां साल दर साल नुकसान में चल रही हैं। पहली बात, वे अपर्याप्त प्रतिस्पर्धा और अपारदर्शिता के चलते महंगी बिजली खरीदती रहीं। दूसरा, बिजली की भारी भरकम चोरी हुई। तीसरा, नुकसान की भरपाई उपभोक्ताओं से नहीं की जा सकती है क्योंकि इसके राजनीतिक और आर्थिक निहितार्थ हैं। बहरहाल, बैंक लगातार इन दिवालिया होने के कगार पर पहुंच चुकी बिजली वितरण कंपनियों को कर्ज देते रहे हैं और घाटा बढ़ता गया है। आरबीआई की जानकारी वाले ऐसे कर्ज को बैंकिंग के मूल सिद्घांतों के प्रतिकूल माना जाना चाहिए। रोचक बात है कि ऐसे कर्ज केवल सरकारी बैंकों ने दिए हैं।

UDAY scheme and contribution to crisis

  • इसके बाद उदय योजना आई जिसके तहत बिजली वितरण कंपनियों के कर्ज को संबंधित राज्य सरकारों द्वारा वहन किया जाना है। जाहिर है इसमें भी भुगतान के काम जनता का ही पैसा आना है।
  • केंद्र सरकार अपने बैंकों का बचाव करदाताओं के पैसे से कर रही है। आरबीआई ऐसा होने दे रहा है।
  • बुनियादी परियोजनाओं को दिए जाने वाले ऋण के निपटान को लेकर कोई स्पष्टïता नहीं थी। अब समाप्त हो चुके योजना आयोग ने इस विषय में विस्तृत प्रस्ताव तैयार करके आरबीआई को कहा था कि वह इस क्षेत्र में अग्रिम ऋण को लेकर उचित मानक तैयार करे। लेकिन तब तक काफी नुकसान पहले ही हो चुका था।

Way ahead

आज भी नियामकीय ढांचा अपर्याप्त नजर आता है। जाहिर सी बात है कि आरबीआई को बैंकिंग नियमन में ज्ञान और क्षमता तैयार करने की आवश्यकता है। उसे यह तय करना होगा कि बैंकों की क्षमता और उनकी प्रक्रिया सुरक्षित और किफायती हो।

अलावा सक्रिय ढंग से निगरानी रखने की भी आवश्यकता है। अगर ऐसा नहीं किया गया तो करदाताओं को इस विफलता का बोझ बार-बार उठाना पड़ेगा। आरबीआई की मानसिकता को सबसे बेहतर एक लैटिन अमेरिकी कहावत से बेहतर समझा जा सकता है जिसका अर्थ यह है कि बिल्ली को मछली अच्छी तो लगती है लेकिन वह अपने आपको गीला नहीं करना चाहती। रिजर्व बैंक को बैंकिंग व्यवस्था की निगरानी करना पसंद है लेकिन वह बैंकिंग नियमन में सुधार करना नहीं चाहता। आरबीआई को अब प्रभावी प्रशासन सुनिश्चित करने का अहम काम संभाल लेना चाहिए।

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