मजबूत रुपया, कमजोर निर्यात

#बिजनेस स्टैंडर्ड

कई वर्षों की लगातार गिरावट के बाद अमेरिकी डॉलर की तुलना में रुपया इस वर्ष लगातार मजबूत हुआ है। महज छह महीने में यह 6 फीसदी मजबूत हो गया। इस रुझान में तेजी की वजह:

  • विदेशी पूंजी की आवक में बढ़ोतरी भी है, खासतौर पर घरेलू ऋण बाजार में।
  • रुपये वाले ऋण की विदेशी धारिता में इस वर्ष 22 अरब डॉलर का इजाफा हुआ है। परंतु भारतीय निर्यात पर रुपये के अधिमूल्यन ने नकारात्मक असर डाला है।
  • निर्यात आधारित प्रमुख क्षेत्रों के मार्जिन पर असर पड़ा है। ऐसा उस कारोबारी मॉडल के कारण हुआ है जिसमें लागत रुपये में रहती और राजस्व डॉलर में आता है।

Negative effect

  • रोजगार और नौकरियों की दृष्टिï से सबसे चिंतित करने वाली बात यह है कि इसने कपड़ा और चमड़ा जैसे श्रम आधारित क्षेत्रों को बहुत अधिक प्रभावित किया है।
  • कपड़ा और तैयार वस्त्र क्षेत्र करीब 50 अरब डॉलर मूल्य का निर्यात करता है। इसमें 17 अरब डॉलर की हिस्सेदारी तैयार कपड़े की होती है। यह क्षेत्र 2 से 4 फीसदी के अत्यंत कम मार्जिन पर कारोबार करता है।
  • किसी तैयार वस्त्र की औसत निर्यात दर 3 डॉलर से भी कम होती है और निर्यात राजस्व का आधे से अधिक हिस्सा डॉलर में आता है। परिणामस्वरूप मुनाफे में बने रहने के लिए कंपनियों को मूल्य बढ़ाना पड़ता है। कई बार कीमत में 4 फीसदी तक का इजाफा करना पड़ता है। हालांकि यह फिर भी मुनाफा बरकरार रखने की दृष्टिï से कमजोर ही है
  • भारतीय निर्यात की बाजार हिस्सेदारी में बांग्लादेश जैसे मुल्क सेंध लगा सकते हैं क्योंकि डॉलर के मुकाबले उनकी मुद्रा का अवमूल्यन हो रहा है। वहां की कंपनियां सस्ता निर्यात कर सकती हैं और इस प्रकार अधिक प्रतिस्पर्धी हो सकती हैं। अन्य क्षेत्रों मसलन चमड़ा, औषधि और सूचना प्रौद्योगिकी में भी यही रुझान देखने को मिल रहा है।
  • हालांकि बड़ी प्रौद्योगिकी फर्म कम से कम हेजिंग की नीति तक पहुंच रख सकती हैं जिससे उनका मुद्रा संबंधी जोखिम कम होता है।

Appreciation of Rupee and Export

रुपये के मजबूत होने से निर्यात पर जो नकारात्मक असर पड़ा है वह बताता है कि मूल्य बहुत मायने रखता है।

  • निर्यात को लेकर निराशाजनक रुख रखने वाले लोगों की दलील है कि मुद्रा के मूल्य का निर्यात क्षमता पर बहुत अधिक असर नहीं होता। बल्कि उसे निर्धारित करने में अन्य ढांचागत कारकों की भूमिका होती है।
  •  निर्यातकों का मौजूदा अनुभव हमें अर्थव्यवस्था के इस पक्ष की कमजोरी से भी अवगत कराता है।

 ऐसे में क्या किया जाए?

एक फैसला तो यह हो सकता है कि कुछ न किया जाए और घरेलू बाजार को मजबूत करते हुए निर्यात को अपनी राह खुद निकालने दी जाए। लेकिन इसमें भविष्य में कपड़ा और वस्त्र जैसे रोजगारपरक क्षेत्रों में अस्थिरता पैदा होने की आशंका है। ये क्षेत्र पहले ही नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के कारण मची उथलपुथल से जूझ रहे हैं। इस समस्या की अनदेखी नहीं की जा सकती है।

 क्या सरकार विदेशी धन की आवक को रोक कर मुद्रा को स्थिर कर सकती है?

वाणिज्यिक बैंकों द्वारा कंपनियों को ऋण देने में आए धीमेपन और घरेलू नियामकीय सीमाओं के बावजूद विदेशी पूंजी की आवक लगातार बढ़ रही है। दरअसल कंपनियों ने ऋण बाजार का रुख किया है। सरकार को घरेलू वाणिज्यिक ऋण की विदेशी खरीद की सीमा शिथिल करने से पहले इसके मुद्रा पर प्रभाव का भी आकलन करना चाहिए। केंद्रीय बैंक के पास यह गुंजाइश है कि वह डॉलर की खरीद भी बढ़ाए। निर्यात बढ़ाने का सबसे दूरदर्शी तरीका यह होगा कि निर्यातकों की घरेलू लागत को कम किया जाए। सरकार को कारोबारी सुगमता बढ़ाने की दिशा में सघन प्रयास करने चाहिए।

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