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केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की एक अदालत ने पूर्व कोयला सचिव एच सी गुप्ता को भ्रष्टïचार के एक मामले में दोषी मानते हुए सजा सुनाई है। इस बात ने आईएएस समुदाय में भारी रोष उत्पन्न किया है। यह उचित ही है और ऐसा होना भी चाहिए। परंतु आश्चर्य की बात यह है (शायद नहीं भी) कि देश में आईएएस लॉबी ने देश की सबसे अधिक ताकतवर ट्रेड यूनियन होने के बावजूद इस बार हड़ताल करने की धमकी नहीं दी। हां, अखबारों में जरूर इस विषय पर एक दो आलेख प्रकाशित हुए। परंतु व्यक्तिगत स्तर पर हर अधिकारी ने एक ऐसे व्यक्ति की दोषसिद्घि को स्वीकार कर लिया जिसके बारे में वे सभी कहते हैं कि वह उतने ही ईमानदार हैं जितना कि देश के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह। डॉ. मनमोहन सिंह उस वक्त कोयला मंत्री थे लेकिन उनके खिलाफ कोई मामला नहीं बना।
Ø रिश्वत के सवाल पर बात हो सकती है लेकिन मनमोहन सिंह के मामले को ध्यान में रखा जाए तो कहा जा सकता है कि आईएएस अधिकारियों का एक बड़ा तबका ईमानदार है। यानी वे रिश्वत नहीं लेते हैं लेकिन जब मंत्री समेत कोई अन्य व्यक्ति ऐसा कर रहा हो तो वे खामोश बने रहते हैं। कई बार तो वे खुद को साफ रखते हुए दूसरों के लिए मार्ग प्रशस्त करने का काम भी करते हैं।
Ø बहरहाल अक्सर कई वजहों से ये अधिकारी असहाय होते हैं तो कई बार ऐसा नहीं भी होता है। जैसे कि इस मामले में इस बात पर जोर नहीं दिया गया कि एक दुर्भावनापूर्ण आदेश लिखित में जारी किया जा रहा है। उनमें से कई इस बात के भी दोषी हैं कि वे अपने आप को साफ सुथरा रखते हुए अधीनस्थों को यह आदेश देते हैं कि वे जरूरी कार्रवाई करें। गुप्ता के मामले में भी कहा जा रहा है कि संभव है उन्होंने कोयला मंत्रालय में अपने अवर सचिव पर जरूरत से ज्यादा भरोसा किया हो। यहां अहम बात यह है कि हर कोई अपनी सुविधा के मुताबिक ऊपरी आदेशों की अनदेखी करता रहा।
Things to learn from this case for IAS officers
यहां आईएएस अधिकारियों के लिए भी एक अहम सबक है
Ø अगर कोई बात किसी मंत्री के लिए ठीक है तो जरूरी नहीं कि वह बात एक नौकरशाह के लिए भी ठीक होगी।
Ø उम्मीद की जानी चाहिए कि कम से कम अब अगर उनको मंत्रियों से कोई निर्देश मिलता है जिसके बारे में उनको लगता है कि वह गलत है तो वे कम से कम अपनी बात कहेंगे। उनके पास बचने का यही एक रास्ता है। क्या तत्कालीन कोयला मंत्री मनमोहन सिंह ने ऐसा कोई आदेश लिखित में जारी किया होता?
एक आईएएस अधिकारी की जिंदगी आसान नहीं होती है। बल्कि कहा जाए तो भारत में इससे कठिन नौकरी कोई नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि आम धारणा तो यह है कि वे पूरे देश का प्रबंधन करते हैं लेकिन हकीकत में उनको राजनेताओं का प्रबंधन करना पड़ता है। इनमें से अधिकांश राजनेताओं का अपना कोई आदर्श नहीं होता। राजनेताओं या मंत्रियों को नियंत्रित करने के दो तरीके हैं। पहला तरीका है 'फाइल को घुमाना' और दूसरा तरीका है 'फाइल को गुमाना'। फाइल को घुमाने का अर्थ है उसे पूरी नौकरशाही व्यवस्था में चक्कर कटवाना। वहीं फाइल को गुमाने का सीधा अर्थ है फाइल को गुम कर देना।
गुप्ता के पास दोनों में से कोई एक या दोनों विकल्प अपनाने का मौका था लेकिन उन्होंने इनमें से एक का भी इस्तेमाल नहीं किया। कम से कम सीबीआई का तो ऐसा ही कहना है। एक बार गड़बड़ी होने के बाद फाइल गुम हो गई। इस प्रकार ईमानदार होने के बावजूद उनको कीमत चुकानी पड़ी। बहरहाल यहां प्रमुख प्रश्न यह है कि संबंधित फाइल पर किसने हस्ताक्षर किए? क्या एक कोयला ब्लॉक का आवंटन बिना मंत्री के हस्ताक्षर के हो गया? यह अपने आप में बहुत विचित्र प्रतीत होता है।
आईएएस व्यवस्था में सुधार :
Ø आईएएस अपने आप में दो हिस्सों वाली व्यवस्था थी। इनमें एक तो इसका मूल काम है यानी जिलों का प्रबंधन करना और दूसरा काम है मंत्रालयों और नीतियों का प्रबंधन करना।
Ø कोई भी समझदार व्यक्ति यह समझ सकता है कि इन दोनों के लिए अलग-अलग कौशल की आवश्यकता है। इसके बावजूद आईएएस व्यवस्था में इसे नहीं माना जाता।
ऐसे में प्रधानमंत्री उचित गुणों और विशेषता वाले उपयुक्त अधिकारियों की ही तलाश में लगे हैं और बहुत अधिक वक्त जाया हो चुका है। इसके अलावा रोचक बात यह है कि जिला प्रबंधन का काम कम अनुभवी लोगों के हवाले रह गया है। जबकि दूसरी ओर मूल कामों से इतर के काम वरिष्ठï अधिकारियों द्वारा अंजाम दिए जाते हैं। बजाय यह जांचे परखे कि उनकी क्षमता क्या है।
इतना ही नहीं। जिले में पदस्थ एक कनिष्ठ अधिकारी को बुरे से बुरे राजनेताओं से निपटना पड़ता है। भारतीय पुलिस सेवा को छोड़ दिया जाए तो यह संपूर्ण प्रशासनिक सेवा का सबसे खराब अनुभव होता है। स्थानीय राजनेताओं से निपटने के क्रम में सबसे युवा अधिकारियों को सबसे कठिन काम सौंपा जाता है। इस समस्या से निपटने के लिए दो काम किए जाने की आवश्यकता है। सबसे पहली बात, इन दोनों कामों के बीच अंतर पैदा किया जाए। दूसरा, केंद्र के राज्यों से अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति पर बुलाने पर रोक लगा दी जाए। केंद्र के पास अपना स्थायी काडर होना चाहिए। देखने वाली बात यह होगी कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मूलभूत सुधार को अंजाम दे पाएंगे?