दुनिया की छठी अर्थव्यवस्था बनने के बाद भी भारत की चुनौतियां ज़रा भी कम नहीं हुई हैं

#Satyagriha

जुलाई के दूसरे सप्ताह में विश्व बैंक ने भारतीय अर्थव्यवस्था के छठे पायदान पर पहुंचने का ऐलान किया. इसके तुरंत बाद केंद्रीय वित्तमंत्री ने दावा किया कि इस साल हमारी अर्थव्यवस्था ब्रिटेन को भी पीछे छोड़ देगी. अगर ऐसा हुआ तो वह दुनिया में पांचवें नंबर पर पहुंच जाएगी| हालांकि मौजूदा आर्थिक हालात को देखते हुए कई जानकार उनके इस दावे को सही नहीं मान रहे हैं. आलोचकों के अनुसार अगर ऐसा हो भी जाता है तब भी भारत को ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है. ऐसा इसलिए कि फ्रांस या ब्रिटेन से हमारी आबादी 20 गुनी है जिसके चलते प्रति व्यक्ति आय के मामले में हमारा हाल बहुत खराब है. भारत इस मामले में 138वें स्थान पर खड़ा है और श्रीलंका, भूटान, मालदीव जैसे देशों से भी वह इस समय काफी पीछे है.

अर्थशास्त्रियों की राय में भारत को खुश तभी होना चाहिए जब उसकी प्रति व्यक्ति आय अभी से काफी ज्यादा हो जाए. इसके लिए हमें अपनी विकास दर को अगले कई सालों तक नौ से 10 फीसदी के बीच रखना होगा. लेकिन उससे पहले हमें कई आर्थिक चुनौतियों से भी निपटना होगा.

क्या है देश की मौजूदा आर्थिक चुनौतियां

कई संस्थाओं और जानकारों के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था अभी चुनौतीपूर्ण मैक्रोइकोनॉमिक आंकड़े, बैंकों की खराब हालत, बुनियादी संरचनाओं की कमी, अकुशल प्रशासन और बेरोजगारी की समस्या से जूझ रही है. जानकारों के अनुसार इन बुनियादी समस्याओं से निपटे बिना उसका सही मुकाम तक पहुंचना यानी 10 की विकास दर हासिल करना संभव नहीं है.

1. चुनौतीपूर्ण मैक्रोइकनॉमिक संकेतक

Ø  अभी हमारे सामने महंगाई और ब्याज की उच्च दरों, बढ़े हुए राजकोषीय, राजस्व और चालू खाते के घाटे, अस्थिर रुपया, जीडीपी के 70 फीसदी के बराबर का कर्ज, सब्सिडी का भारी बोझ जैसी कई बड़ी मैक्रोइकनॉमिक चुनौतियां हैं.

Ø  वित्त वर्ष 2017-18 में देश का कुल राजकोषीय घाटा 6.6 फीसदी था जिसमें केंद्र का हिस्सा 3.5 फीसदी जबकि राज्यों का 3.1 फीसदी था. हालांकि 2020 के मार्च तक इसके घटकर करीब पांच फीसदी होने की उम्मीद है. अर्थशास्त्रियों के अनुसार बिना इसके घटे विदेशी निवेश औऱ विकास दर का बढ़ना कठिन है.

Ø  उधर पिछलेवित्त वर्ष में देश का कुल राजस्व घाटा तीन फीसदी हो गया. इसमें केंद्र का योगदान 2.6 फीसदी का था जबकि राज्यों का 0.4 फीसदी. अनुमान है कि अगले दो साल में ये आंकड़े घटकर 1.8 और 0.2 फीसदी रह जाएंगे. वैसे अर्थशास्त्रियों की राय में राजस्व घाटे को बिल्कुल नहीं होना चाहिए पर जनता की नाराजगी के चलते मोदी सरकार ऐसा करने के मूड में जरा भी नहीं लगती है.

Ø  इसके साथ ही कच्चे तेल के महंगा होने से अभी वस्तुओं का आयात इसके निर्यात से काफी ज्यादा हो रहा है. इस वजह से होने वाला चालू खाते का घाटा (वस्तु और सेवाओं के आयात और निर्यात का अंतर) सबकी चिंताएं बढ़ा रहा है. 2017-18 में यह जीडीपी का 1.9 फीसदी हो गया जबकि इसके साल भर पहले यह केवल 0.6 फीसदी ही था. इसके चलते डॉलर की तुलना में रुपये की मांग अभी कम हो गई है जिससे रुपया लगातार कमजोर हो रहा है. अर्थशास्त्रियों की राय में आयात प्रधान हमारी अर्थव्यवस्था को स्थिर रखने के लिए सरकार को जल्द ही इस चुनौती से निपटना ही होगा. पर ऐसा होने में कुछ और तिमाही लग सकते हैं.

Ø  इसके अलावा विदेशी निवेश बढ़ाने के लिए सरकार को कुल विदेशी कर्ज और सब्सिडी को भी काबू में करना होगा.

2. बैंकों का बुरा हाल

Ø  इन दिनों बैंकिंग सेक्टर का फंसा हुए कर्ज लगातार सुर्खियां बना रहा है. आईएमएफ, वर्ल्ड बैंक सहित तमाम क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने भी इसका प्रमुखता से जिक्र किया है. इस साल मार्च तक देश के सभी बैंकों का कुल फंसा हुआ कर्ज 10.25 लाख करोड़ रुपये हो गया है. कई जानकारों के अनुसार बैंकों का खराब प्रशासन इस समस्या की मूल वजह है और बिना इसे दूर किए बैंकिंग सेक्टर को पटरी पर लाना असंभव है. कई अर्थशास्त्रियों के अनुसार बैंकिंग सेक्टर के पटरी पर लौटने में अभी कम से कम पांच या छह तिमाही लग सकते हैं. हालांकि कइयों को इसमें उससे भी ज्यादा समय लगने की आशंका है.

3. कमजोर इन्फ्रास्ट्रक्चर

Ø  भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कुछ महीने पहले सिंगापुर में अपने एक व्याख्यान में कहा कि मौजूदा भूमि अधिग्रहण कानून और श्रम कानूनों में कई समस्याएं हैं. सरकार जब तक इन दोनों तरह के कानूनों को उदार और स्पष्ट नहीं बनाती तब तक देश में बुनियादी ढांचे पर निवेश में वृद्धि और इसके तैयार होने में लगने वाले समय और मूल्य में कटौती नहीं हो सकती.

Ø  उधर अर्थशास्त्रियों के अनुसार अर्थव्यवस्था की हालत सुधारने के लिए देश के बुनियादी ढांचे की सूरत बदलना जरूरी है. और इसके लिए केंद्रीय वित्त मंत्री पीयूष गोयल के अनुसार अगले एक दशक में देश को 300 लाख करोड़ रुपये का निवेश चाहिए. यह राशि वर्तमान में देश में हो रहे कुल निवेश (घरेलू और विदेशी मिलाकर) की दो तिहाई होगी. जाहिर सी बात है इतनी बड़ी राशि का इंतजाम करना सरकार के लिए तब तक बिलकुल आसान नहीं होगा जब तक वह रघुराम राजन के बताये राजनीतिक कदमों को नहीं उठाती है.

4. स्वास्थ्य, शिक्षा का खस्ताहाल ढांचा और खराब प्रशासन

अभी हाल ही में एसबीआई की एक रिपोर्ट आई थी जिसमें बताया गया कि सुपरपॉवर बनने के लिए भारत के पास केवल 10—12 साल का वक्त बचा है. इसके अनुसार भारत के मानव संसाधन की हालत बेहद खराब है इसे स्वस्थ, शिक्षित और कुशल बनाने के लिए सरकार को युद्धस्तर पर प्रयास करने की जरूरत है. यानी कि आम लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए सरकार को केवल आर्थिक सुधार करके संतुष्ट होने की ही जरूरत नहीं है. बल्कि उसे लोगों के स्वास्थ्य और शिक्षा पर ध्यान देने के साथ-साथ कुछ अन्य सुधारों पर भी ध्यान देना चाहिए, जैसे न्यायिक सुधार, प्रशासनिक सुधार, पुलिस सुधार और राजनीतिक सुधार. हालांकि ऐसा करने के लिए सरकारों की मंशा का साफ होना तो अनिवार्य है ही आर्थिक कोष का होना भी जरूरी है. लेकिन जानकारों के मुताबिक ऐसा किए बिना भारत की अर्थव्यवस्था का आकार और प्रति व्यक्ति आय दोनों के बहुत बेहतर होने की संभावना काफी क्षीण है.

5. बेरोजगारी

जानकारों के अनुसार बिना रोजगार के विकास और इससे जुड़े आंकड़ों का कोई मतलब नहीं होता. वहीं बेरोजगारों की भरमार से प्रति व्यक्ति आय के में भी खासा इजाफा संभव नहीं हो पाता. पर सवाल है कि रोजगार आखिर बढ़े कैसे, वह भी तब जब अर्थव्यवस्था कई चुनौतियों से गुजर रही हो. ऐसे में अर्थशास्त्रियों की राय है कि मौजूदा चुनौतियों को दूर करके विकास दर को कई सालों तक औसतन नौ से दस फीसदी बनाए रखना होगा. इसके लिए जैसाकि कि हम देख चुके हैं कि बुनियादी ढांचे में मोटा निवेश करना बेहद जरूरी है जोकि अपने आप में ही बेरोजगारी को कम करने वाला होता है. बिना बेरोजगारी की समस्या को हल किये लोगों की औसत आय में इजाफे के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता.

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