कोयला एक बार फिर से सुर्खियों में है। उसे अब आंशिक रूप से फिर से निजी क्षेत्र को देने की कवायद शुरू हो गई है। मोदी सरकार आर्थिक सुधारों की दिशा में एक और बड़ा कदम उठाने जा रही है। कैबिनेट के फैसले के बाद अब कोयला उद्योग के निजीकरण का नया रास्ता खुला है।
ऐसा नहीं है कि कोयला उद्योग के निजीकरण की कवायद पहले नहीं हुई थी। मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में कोयले की खदानों की जिस तरह से बंदरबांट हुई, उसके बाद 2014 के सितंबर में सुप्रीम कोर्ट ने 204 कोयला खदानों का आवंटन रद्द कर दिया था और मंत्रियों को अपना पद भी गंवाना पड़ा था। इसका खामियाजा अर्थव्यवस्था को भी भुगतना पड़ा था।
2015 के मार्च में सरकार ने एक नया बिल पारित करके इस क्षेत्र में उदारीकरण की राह आसान कर दी। अब छोटे और मध्यम आकार के कोयले की खदानों की पारदर्शी तरीके से नीलामी संभव हो सकेगी।
Problem with Coal India
भारत की सरकारी कंपनी कोल इंडिया की समस्या यह है कि वह उतने बड़े पैमाने पर कोयले का उत्पादन नहीं कर पा रही है, जितने की मांग है। इतना ही नहीं, कोयले के दाम उस पर आधारित उद्योगों के लिए घाटे का सौदा है। देश में ऊर्जा की मांग लगातार बढ़ती जा रही है और इसके साथ ही कोयले की भी। न केवल थर्मल पॉवर प्लांट, बल्कि स्टील, फर्टिलाइजर, सीमेंट उद्योगों में भी इसका इस्तेमाल होता है। कोल इंडिया इतने बड़े पैमाने पर सस्ते कोयले का उत्पादन नहीं कर पा रही है। देश में कोयले के दाम ज्यादा हैं और आपूर्ति कम। नतीजतन अरबों रुपये की लागत से बने थर्मल पॉवर प्लांट पूरी क्षमता से उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं। कोयले के अभाव में कई संयंत्र की हालत खस्ता है और बैंकों से उधार ली गई रकम डूबने के कगार पर है। कोल इंडिया के पास इतनी पूंजी नहीं है कि वह नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर सके। जहां तक पूंजी की बात है, तो वह निवेश से ही आ सकती है और उसके लिए इस क्षेत्र को निजी निवेशकों के लिए खोलना जरूरी है। इसका बड़ा फायदा यह है कि कोयले की तलाश कर रहे उद्योगों का पैसा विदेश जाने से रुकेगा। कुछ ऊर्जा कंपनियों ने अफ्रीका में कोयले की खदानें खरीदीं और ऑस्ट्रेलिया से कोयले का आयात कर रही हैं। इस तरह से भारत का पैसा विदेशों की ओर गया, जबकि इसका उलटा होना चाहिए था। इससे न तो रोजगार बढ़ा और न ही जीडीपी में इजाफा हुआ।
कोल इंडिया इस समय देश के कुल कोयला उत्पादन का 82 प्रतिशत करती है, यानी लगभग 54 करोड़ टन।
इसमें सवा तीन लाख मजदूर व अन्य काम करते हैं और यह दुनिया की सबसे बड़ी कोयला उत्पादक कंपनी है। लेकिन इसके उत्पादन की लागत ज्यादा है, यानी 600 रुपये प्रति टन। इस कारण से बिजली बनाने वाली कंपनियों का मुनाफा बहुत ही कम है।
अरबों रुपये की लागत से बनाए गए थर्मल पॉवर प्लांट जितनी बिजली का उत्पादन कर सकते थे, उतना नहीं कर पा रहे हैं। यही हाल इस्पात संयंत्रों का है, जिन्हें अपेक्षाकृत महंगा कोयला मिलता है। इससे उनकी भी उत्पादन लागत बढ़ गई है। एक ओर तो कोल इंडिया का कोयला महंगा है, दूसरी ओर इसकी अबाध आपूर्ति भी नहीं है।
दरअसल कोल इंडिया में खदान मजदूर की औसत मजदूरी 40,000 रुपये महीना है, जो अन्य उद्योगों की तुलना में ज्यादा है। कोल इंडिया अपने राजस्व का कुल 55 प्रतिशत कामगारों के वेतन-भत्तों पर खर्च करती है, जबकि कोयले के उत्पादन में लगी कुछ निजी कंपनियां तो 25 प्रतिशत भी खर्च नहीं करतीं। यूनियनों का कहना है कि अगर प्राइवेट कंपनियां कोयले का उत्पादन करेंगी, तो वे इतनी मजदूरी नहीं दे पाएंगी और श्रमिकों का शोषण होगा। लेकिन सातवें वेतन आयोग के लागू होने के बाद देश में सरकारी मजदूरी की दरों और निजी उद्योगों की दरों में काफी फर्क आ गया है। ऐसा भी नहीं है कि ज्यादा वेतन-भत्ते देने के कारण सरकारी उपक्रमों या कार्यालयों में काम का स्तर बेहतर हो गया है।
कोल इंडिया की कई समस्याएं हैं:
इनमें सबसे ज्यादा रही है राजनीतिक हस्तक्षेप और कुशल प्रबंधन का अभाव। पहले कोयला मंत्रालय पाने के लिए होड़ लगती थी और यहां तक कि चेयरमैन का पद पाने के लिए काफी जोड़-तोड़ की जाती थी। ज्यादातर खदानों में यूनियनों की मनमानी चलती है और श्रमिकों का शोषण भी होता था।
कोयले की चोरी तो आम बात रही है। कोयले के उत्पादन के आंकड़े भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए जाते रहे हैं। सच तो यह है कि कोयले के सरकारीकरण ने पूर्वी भारत, खासकर झारखंड में कोल माफिया को जन्म दिया। तटस्थ जानकारों का मानना है कि यदि पूरी कुशलता से उत्पादन किया जाए, तो कोल इंडिया का लाभ बढ़ सकता है। वैसे कोल इंडिया ने उत्पादन लागत घटाने के काफी प्रयास किए हंै। उसका दावा है कि इसमें उसे सफलता मिली है।
खनन क्षेत्र का जीडीपी में बड़ा योगदान रहा है और यह सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले क्षेत्रों में से है। अब कितनी सरकारी खदानों का निजीकरण हो पाता है और कितने उत्पादक ब्लॉक प्राइवेट कंपनियों को मिल पाते हैं, इन पर ही आगे का रास्ता तय होगा। बड़ा निवेश करके कोई भी कंपनी घाटा नहीं उठाना चाहेगी। शुरू में उन्हें भी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा और उनकी उत्पादन लागत ज्यादा रहेगी। एक और बात, जो यूनियनें कह रही हैं, वह यह है कि प्राइवेट कंपनियां नियम-कानूनों और मजदूरों की सुरक्षा और कल्याण का कितना ध्यान रखेंगी, यह सवाल सबसे महत्वपूर्ण है। लेकिन यह भी सच है कि निजीकरण समय की मांग है और उससे ही इस सेक्टर में बड़ा निवेश आएगा
#Amar_Ujala
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