Economy is in lower spiral and to boost nit fiscal stimulus but reforming the system is need of hour. Fundamental problems have to be tackled
#Business_Standard
महीनों तक लगातार देश की अर्थव्यवस्था में ढांचागत और गंभीर बदलाव की चिंताओं के बीच केंद्र सरकार ने आखिरकार यह स्वीकार कर लिया है कि हां, कुछ समस्या है। वित्त मंत्री ने कई वरिष्ठ अधिकारियों से मुलाकात की और खबरों के मुताबिक प्रधानमंत्री के समक्ष एक सुधार योजना पेश की गई है। देर से ही सही सरकार चेती तो है। संभावना यही है कि बढ़ा हुआ व्यय ही एकमात्र तरीका है जो किसी सुधार योजना को आसानी से अंजाम दे सकता है। यही वजह है कि सरकार की ओर से आवाज उठने लगी है कि अब उसे राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की ओर से ध्यान हटाकर मंदी में खर्च बढ़ाने पर जोर देना चाहिए। यह बेहद बुरा विचार है।
फिलहाल तो यही लगता है कि सरकार ने अर्थव्यवस्था के अब तक के कुप्रबंधन से कोई सबक नहीं सीखा है। सरकार ने जब से सत्ता संभाली है उसका पूरा ध्यान निम्रलिखित कदमों पर रहा है:
पहला, विरासत में मिली कारोबारी चक्र की कुछ समस्याओं को दूर करना।
दूसरा, सस्ते तेल के दम पर कर वृद्घि और व्यय की बचत।
तीसरा, बिना अन्य व्यय में कमी किए बुनियादी विकास को गति और
चौथा, निवेशकों में कारोबारी भावना जगाए रखने के लिए अर्थव्यवस्था को लेकर सकारात्मक संदेशों के प्रसार को प्राथमिकता।
Weak on implementation
सैद्घांतिक तौर पर तो यह एक सुसंगत आर्थिक कार्यक्रम नजर आता है परंतु अवधारणा और क्रियान्वयन के स्तर पर यह कमजोर है। इसमें समस्याओं को समझा ही गलत गया। ऐसे में निदान सही कैसे होगा। मसलन, इसमें माना गया कि उच्च बुनियादी व्यय से निजी निवेश की कमी को दूर किया जा सकता है, सरकारी व्यय से निजी निवेश आएगा क्योंकि इससे प्रतिफल कहीं अधिक आकर्षक हो जाएंगे। ऐसा नहीं हुआ। निजी निवेशक अभी भी अतिरिक्त क्षमता, कमजोर मांग और निवेश की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं। इसीलिए निजी निवेश और वृद्घि दोनों कमजोर हैं।
No urgent attention to NPA
फंसे हुए कर्ज से निपटने जैसी समस्याओं को भी प्राथमिकता नहीं दी गई। यहीं पर कुप्रबंधन की शुरुआत हो गई। सरकार ने इन समस्याओं की ओर पेशकदमी करने में बहुत अधिक समय लगा दिया। सरकार के मंत्रियों ने भी अक्सर इसकी निर्णय क्षमता की बात की है लेकिन जहां राजनीतिक जोखिम वाले फैसलों की जरूरत थी, वहां अब तक कोई खास पहल देखने को नहीं मिली है। आर्थिक तेजी वाले दिनों में उपभोक्ताओं, सरकारी बैंकों और प्रवर्तकों से जुड़े मामले इसमें शामिल हैं। ऐसे में कहा जा सकता है कि सरकार ने निर्णय लेने के मोर्चे पर कोई खास प्रदर्शन नहीं किया। सरकार को पहले दिन से पता था कि बैंकिंग क्षेत्र संकट में है लेकिन वह समस्या को हल करने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठा सकी है। चूंकि यह कार्यक्रम बाहरी कारक यानी तेल कीमतों पर आधारित है इसलिए इसका अस्थिर होना लाजिमी है। यह राजनीतिक मोर्चे पर भी जोखिम भरा है।
Problem is mismanagement of Economy
खराब आर्थिक प्रबंधन के चलते अर्थव्यवस्था में लगातार छह तिमाहियों से गिरावट आ रही है जबकि वृहद आर्थिक हालात उतने बुरे नहीं हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार है और सरकारी व्यय बढ़ रहा है। इन हालात में 5.7 फीसदी की वृद्घि दर तो निराश करने वाली ही है। इन हालात में तार्किक कदम तो यही होगा कि वर्ष 2014 के चुनावों के दौरान घोषित आर्थिक कार्यक्रम पर नजर डाली जाए और सुधार किया जाए। राजकोषीय समावेशन के मोर्चे पर यह सरकार सही मार्ग पर अग्रसर रही है। इस पथ से भटकाव सही नहीं होगा। सरकारी व्यय में तो हर बजट में इजाफा किया गया है और उससे अर्थव्यवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ है। ऐसे में भविष्य में और व्यय पर कैसे विचार किया जा सकता है।
अर्थव्यवस्था की कई मौजूदा समस्याओं की जड़ें वर्ष 2008 से पहले की तेजी में हैं लेकिन कई अन्य समस्याएं सन 2008 के संकट के बाद हड़बड़ी में आई आसान नकदी से भी जुड़ी हैं। राजकोषीय घाटा खतरनाक स्तर तक बढ़ा, सुधार टल गए, करों में कटौती की गई, ऋण दिए गए वगैरह…वगैरह। खैर, वह एक वास्तविक संकट था। क्या हम वही गलती दोहराने जा रहे हैं? यह मानने की कोई वजह नहीं है कि सरकार द्वारा दिया जाने वाला प्रोत्साहन किसी भी प्रकार से प्रणव मुखर्जी के प्रोत्साहन की तुलना में अधिक प्रभावी या कम खतरनाक होगा। ईमानदारी की संस्कृति की बार-बार दी जा रही दुहाई के बावजूद तथ्य यही है कि देश की मूलभूत राजनीतिक संस्कृति में वर्ष 2010 के बाद से कोई बदलाव नहीं आया है।
Repeating the earlier mistakes
संस्थागत सुधारों के अभाव में वही प्रोत्साहन आज भी बरकरार हैं और वही गलतियां दोहराई जा रही हैं। समस्या यह है कि सरकार इस बार एक ढांचागत समस्या को हल करने के लिए प्रति चक्रीय नीति का प्रयोग करने जा रही है। यह कारोबार चक्र से जुड़ी मंदी नहीं है। कारोबारी चक्र की मंदी का सामना हमने वर्ष 2012-13 में किया था। मोदी के सत्ता में आने से ऐन पहले ही हम इससे उबर पाने में कामयाब हो सके थे। मौजूदा मंदी ढांचागत समस्याओं की वजह से है। गैर प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था, परिसंपत्ति अधिकार और निवेश की सुरक्षा का अभाव, अक्षम प्रशासन और कमजोर नियामकीय वातावरण इसके लिए उत्तरदायी है। इन ढांचागत मुद्दों को हल करके ही देश को उच्च विकास पथ पर वापस ले जाया जा सकता है।
हर बीतते दिन के साथ हमारी विकास संभावनाएं धूमिल ही हो रही हैं। हम हर रोज पहले से कम प्रतिस्पर्धी रह जा रहे हैं। इन मुद्दों को हल करके, मांग की मदद से और निवेश बढ़ाकर वृद्घि को वापस पटरी पर लाया जा सकता है। बिना इन समस्याओं को हल किए नकदी खर्च करने से हालात और अधिक बिगड़ते चले जाएंगे। परंतु मौजूदा सरकार के रिकॉर्ड को देखें तो यह नौकरशाही की अनुशंसाओं से परे विचार ही नहीं कर पा रही है। नौकरशाही का रुझान धन खर्च करने में अधिक रहता है। वह सत्ता गंवाना नहीं चाहती। जब तक देश में ऐसी सरकार नहीं आती है, जिसकी नीतियां नौकरशाही न बनाए, तब तक हम मंदी से निकलने की जद्दोजहद में ही लगे रहेंगे