विदेशी ऋण के जोखिम

  • वित्तीय क्षेत्र में व्याप्त तनाव और बैंकिंग क्षेत्र में फंसे हुए कर्ज का बढ़ता स्तर, भारतीय कंपनियों को विदेशों से ऋण लेने के लिए मजबूर कर रहे हैं। बिज़नेस स्टैंडर्ड के रिसर्च ब्यूरो द्वारा जुटाए गए आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2019 के पहले 10 महीनों में डॉलर बॉन्ड के जरिये 13.74 अरब डॉलर की राशि जुटाई गई जबकि पिछले वर्ष समान अवधि में यह राशि 1.65 अरब डॉलर थी। यह भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुरूप ही है। ताजा मौद्रिक नीति रिपोर्ट के अनुसार वाणिज्यिक क्षेत्र को मिलने वाला फंड अप्रैल से सितंबर के मध्य तक घटकर 90,995 करोड़ रुपये रह गया जबकि गत वर्ष समान अवधि में यह 7.36 लाख करोड़ रुपये था। चूंकि बैंकिंग व्यवस्था से फंड की आवक नहीं हो रही है इसलिए कंपनियों ने विदेशी स्रोतों का रुख किया। इस अवधि में बाहरी स्रोतों से 54,073 करोड़ रुपये की उधारी ली गई जबकि पिछले वर्ष समान अवधि में यह राशि (-) 653 करोड़ रुपये थी। वाणिज्यिक क्षेत्र को इस अवधि में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में सुधार का लाभ भी मिला।
  • बैंकिंग क्षेत्र कमजोर बैलेंस शीट के चलते ऋण देने का इच्छुक नहीं है। कंपनियां भी कम दरों का लाभ लेने के लिए विदेशों से ऋण लेना पसंद कर रही हैं। ऐसे में बेहतर रेटिंग वाली कंपनियों के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार से धन जुटाना कोई मुश्किल नहीं है। वह भी ऐसे समय में जबकि विकसित अर्थव्यवस्थाओं के निवेशक बेसब्री से प्रतिफल की बाट जोह रहे हैं। बहरहाल, विदेशी मुद्रा में की गई उधारी पर अधिक निर्भरता वित्तीय स्थिरता के लिए जोखिम पैदा कर सकती है। देश का बाहरी वाणिज्यिक ऋण 200 अरब डॉलर से अधिक है। इसके अलावा अल्पावधि का ऋण विदेशी मुद्रा भंडार के 56 फीसदी के बराबर है। वैश्विक बाजार में तनाव बढऩे पर अल्पावधि के ऋण का बढ़ा हुआ स्तर घरेलू बाजारों में अस्थिरता ला सकता है। तेल कीमतों में अचानक उछाल आने से मौजूदा बाजार में अस्थिरता आ सकती है क्योंकि तेल भुगतान बकाया है। 2018 में ऐसा हो चुका है। रुपये के अधिमूल्यन से उन कंपनियों पर कर का बोझ बढ़े जिन्होंने बिना विदेशी मुद्रा राजस्व के विदेशी मुद्रा में ऋण लिया। विदेशों से ज्यादा ऋण लेने से रुपये पर दबाव बढ़ सकता है। बीते कई वर्षों से देश का निर्यात ठहरा हुआ है और रुपये के अधिमूल्यन को इसकी एक बड़ी वजह माना जाता है। चूंकि देश चालू खाते के घाटे का शिकार है इसलिए उसे बचत-निवेश के अंतराल की भरपाई के लिए पूंजी की आवश्यकता होगी। ऐसे में अगर विदेशी मुद्रा में अल्पावधि का ऋण नहीं लिया जाए तो बेहतर होगा। यदि केंद्रीय बैंक रुपये को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए सक्रिय हस्तक्षेप करें तो बेहतर होगा।

  • इतना ही नहीं देश की वित्तीय व्यवस्था को मजबूत बनाना भी आवश्यक है ताकि बचत को प्रभावी तरीके से अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों तक पहुंचाया जा सके। हालांकि सरकार सरकारी बैंकों को सुदृढ़ कर रही है और उनमें नई पूंजी डाल रही है लेकिन उन्हें पटरी पर लाने के लिए काफी कुछ करने की आवश्यकता है। सरकार और आरबीआई को गैर बैंकिंग वित्तीय क्षेत्रों से जुड़ी चिंताओं को समाप्त करना होगा। वित्तीय क्षेत्र पर दबाव, मौद्रिक नीति के पारेषण पर असर डाल रहा है और देश के कारोबारी जगत को कम दरों का उचित लाभ नहीं मिल पा रहा है। बैंकों की औसत ऋण दर और नीतिगत रीपो दर के बीच का अंतर अभी उच्चतम स्तर पर बताया जा रहा है। अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों को फंड मुहैया कराने के लिए हमें मजबूत वित्तीय तंत्र की आवश्यकता है। इससे विदेशी ऋण पर निर्भरता कम करने और वित्तीय स्थिरता मजबूत करने में मदद मिलेगी।

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