रोजगार की कसौटी और विकास

Growing joblessness is serious concern in India and for that answer is not industrialization but....

#Jansatta

गरीबी और बेरोजगारी की समस्या आजादी के पहले से ही रही है। आजादी के बाद देश में कुछ नए कल-कारखाने खुले तो कुछ लोगों को काम मिला, लेकिन हमारी आबादी जिस रफ्तार से बढ़ रही है उसके लिए रोजगार के अवसर लगातार घटते जा रहे हैं। बड़ी संख्या में शिक्षित और अशिक्षित युवक बेरोजगार हैं। इसलिए हमें गंभीरतापूर्वक इस बात पर विचार करना होगा कि जिस देश में इतने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी हो तथा देश की अधिसंख्य आबादी गांवों में बसती हो, वहां हमारी विकास योजनाओं की प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए? इसका उत्तर महात्मा गांधी ने दिया है।

दरअसल, देश के विकास की ग्राम स्वराज्य की अपनी परिकल्पना में गांधीजी ने गरीबी और बेरोजगारी को दूर करने का जो खाका तैयार किया था, उसकी उपेक्षा करके हमने बहुत बड़ी गलती की है। जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी जैसे नेताओं ने गांधीजी के मार्ग को दकियानूसी माना और आधुनिक विकास के औद्योगीकरण के रास्ते पर चले। इसका परिणाम सबके सामने है। इसलिए अब कई लोग महसूस करते हैं कि हमने गांधीजी के रास्ते को छोड़ कर बहुत बड़ी गलती की है। अत: अब सब लोग गांधीजी की विचारधारा से मिलते-जुलते विचार रखने लगे हैं। जैसे कि कृषि हमारी विकास योजना का मुख्य आधार बनना चाहिए। इसकी बुनियाद पर ही गृह उद्योगों और ग्रामोद्योगों की एक रूपरेखा गांवों के विकास के लिए बनानी चाहिए। उसमें बिजली, परिवहन और बाजार आदि की सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

Is Industrialization answer to Joblessness

देश में तेजी से बढ़ती बेरोजगारी और गरीबी की समस्या आधुनिक विकास की औद्योगीकरण की नीतियों से हल नहीं की जा सकती है। इसके लिए जरूरी है कि खेती की दशा को तो सुधारा ही जाए, पर जनता को खेती के अलावा भी काम दिया जाए और उसकी आय बढ़ाई जाए। उसे कम से कम अन्न तथा वस्त्र जैसी आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धि में स्वावलंबी बनाया जाए।

यह हो सकता है जब देश में उत्पादन बढ़े, उद्योग और व्यवसाय पनुरुज्जीवित हों तथा उत्पादक जन-वर्ग अपने श्रम से उत्पन्न पदार्थ का स्वामी हो। इस लक्ष्य की पूर्ति के दो मार्ग संभव हैं। एक तो यह कि देश में खूब नए कल-कारखाने स्थापित किए जाएं, नई पद्धति से उत्पादन और उद्योग की व्यवस्था की जाए, तथा दूसरा मार्ग उत्पादन की वह पुरानी पद्धति है, कुटीर व्यवसायों और उद्योगों का प्रकार है, जो लगभग दो शताब्दी पूर्व तक भारत के आर्थिक संगठन का मेरुदंड बना हुआ था। गांधी की अंतश्चेतना और कल्पनाशील बुद्धि ने सहसा द्वितीय मार्ग का चयन किया, और आज निष्पक्ष होकर विचार कीजिए तो आप देखेंगे कि उनका यह चुनाव वस्तुस्थिति तथा आवश्यकता और समस्या के समाधान की दृष्टि से एकमात्र उचित तथा संभव चुनाव है।

  • यदि थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि भारत में उत्पादन की नई पद्धति तथा नए कल-कारखानों की स्थापना से देश के करोड़ों लोगों की बेरोजगारी का परिमार्जन किया जा सकता है, तो भी जब हम भारत की विशेष परिस्थिति और आवश्यकता पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि न तो उन उपायों को काम में लाना संभव है और न उनसे हमारी वे समस्याएं सुलझेंगी जो मुंह बाए सामने खड़ी हैं।
  • सवाल यह भी है कि औद्योगीकरण की नीतियों पर चल कर क्या हम अपने लगभग पच्चीस करोड़ बेरोजगार नौजवानों को कल-कारखानों में काम दे सकते हैं? क्या इतनी पूंजी हमारे पास है कि हम इतनी बड़ी संख्या में कल-कारखाने लगा सकते हैं?
  • यदि मान लिया जाए कि यह हो भी सकता है तो इतने कल-कारखानों में उत्पादित माल की खपत कहां होगी?
  • तीन-चार साल पहले ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, जापान और चीन में कुल मिला कर लगभग बीस करोड़ औद्योगिक मजदूर काम करते थे। इनमें वे मजदूर भी शामिल हैं जो उन देशों के कल-कारखानों के अलावा अन्य व्यवसायों और यातायात में लगे हुए हैं तो हमारी आंखें खुल जाती हैं। इन छह देशों में कुल बीस करोड़ मजदूर उत्पादन में लगे हैं और दुनिया का बाजार उनके द्वारा उत्पादित सामानों से भरा पड़ा है। भारत के पच्चीस करोड़ बेकारों को काम देने के लिए उपरोक्त छह देशों में जितने कारखाने और व्यवसाय हैं उनके डेढ़ गुने कल-कारखानों और व्यवसायों की स्थापना अकेले भारत में करनी पडेÞगी। उसके बाद जो उत्पादन होगा वह धरती के किस कोने में जाएगा? इसलिए भारत की विशेष परिस्थिति विशेष आवश्यकता की ओर संकेत करती है जिसकी पूर्ति का उपाय भी दूसरा होगा।

There is no Universal model of Development

आज वैश्वीकरण के दौर में सबसे ज्यादा जिस चीज पर जोर दिया जा रहा है वह है विकास। लेकिन इस हकीकत को नजरअंदाज कर दिया गया है कि दुनिया के सारे देशों के लिए विकास का एक ही मॉडल उपयुक्त नहीं हो सकता। विशाल और घनी आबादी वाले देश के लिए विकास का वैसा ही मॉडल प्रासंगिक हो सकता है जिसमें पूंजी पर निर्भरता कम से कम हो और रोजगार की संभावना अधिक से अधिक। गांधीजी इस बात को पहले ही समझ गए थे कि भारत की असली समस्या करोड़ों बेरोजगारों को काम देने की है और इसका समाधान बड़े-बड़े कल-कारखाने नहीं कर सकते हैं। इसलिए उन्होंने कहा था कि ‘कल कारखाने उस समय कुछ लाभ पहुंचा सकते हैं, जब आवश्यक और अपेक्षित उत्पादन के लिए उत्पादकों की संख्या कम हो। पर जहां उत्पादकों और काम करने वालों की संख्या काम से अधिक है, वहां कल-कारखाने न केवल अहितकर बल्कि अभिशाप सिद्ध होते हैं। भारत की अवस्था ऐसी ही है। हमारे सामने समस्या श्रम को बचाने वाले यंत्रों की नहीं बल्कि अपार और बेकार पड़े हुए श्रम का उपयोग करने की है।’

Then what is the solution

इस समस्या को सुलझाने की एकमात्र संभव दिशा वह है जिधर चरखा और खादी संकेत करते हैं। चरखा सांकेतिक चिह्न है उत्पादन की विकेंद्रित प्रणाली का। आज कई बड़े अर्थशास्त्री और उद्योगीकरण व यंत्र पद्धति तथा पाश्चात्य सभ्यता के समर्थक भी यह मानने को बाध्य हो रहे हैं कि गांधी के तर्क और उनकी विचार पद्धति का खंडन संभव नहीं है। कोई भी सरकार करोड़ों बेरोजगार युवकों को सरकारी नौकरियां उपलब्ध नहीं करा सकती और न तो इतने कल-कारखाने खोले जा सकते हैं कि वहां सबको काम मिल जाए। आज स्वीकार किया जा रहा है कि भारत में वस्त्र उत्पादन के लिए मिलों की स्थापना की जाए तो केवल दस लाख व्यक्तियों को काम मिलेगा। मिलों की स्थापना में जहां उसे हजारों करोड़ रुपयों की पूंजी लगानी पड़ेगी वहां केवल कुछ सौ करोड़ की पूंजी से सारे भारत को वस्त्र और साढ़े पांच करोड़ से अधिक नर-नारियों को काम दिया जा सकता है। याद रखिएगा साढ़े पांच करोड़ केवल बुनकर होंगे। कत्तिन, बढ़ई, लोहार तथा अन्य कारीगरों की संख्या इनके अलावा होगी जिन्हें काम मिल जाएगा। यह केवल वस्त्र के व्यवसाय में हो जाता है। केवल एक दिशा करोड़ों नर-नारियों को काम देकर भूमि के बोझ को हल्का कर देती है। इस योजना में भारत जैसे गरीब देश को न पूंजी की खोज करनी है और न विदेशी कंपनियों के हस्तक्षेप का भय है। जगत की कोई शक्तिनहीं है कि भारत की आर्थिक समस्याओं के समाधान और आर्थिक जीवन के पुनरुद्धार में बाधक हो सके। इसलिए गांधी के बताए गए ग्राम स्वराज्य के रास्ते पर चल कर ही हम अपने देश के करोड़ों लोगों को रोजगार मुहैया करा सकते हैं। देश की तकदीर बदलने का यही एकमात्र संभव उपाय है, जिसकी परिकल्पना लगभग सौ वर्ष पहले ही महात्मा गांधी ने कर ली थी

Download this article as PDF by sharing it

Thanks for sharing, PDF file ready to download now

Sorry, in order to download PDF, you need to share it

Share Download