Context
सरकार ने देना बैंक का फायदे में चल रहे बैंक ऑफ बड़ौदा और विजया बैंक में विलय कर दिया।
- यहां सरकार एक बात पर ध्यान देना भूल गई कि देना बैंक में समस्याओं का कारण वहां पर होने वाले घोटाले, गैर जिम्मेदाराना काम और कर्मचारियों की लापरवाही रहा है।
- क्या विलय के बाद देना बैंक की व्यावहारिक समस्याएं समाप्त हो जाएंगी? यदि नहीं तो देना बैंक की इस दयनीय स्थिति का कौन जिम्मेदार है? क्या बैंकों का विलय अपराधों पर पर्दा डालना नहीं है?
- क्या इस तरह की कार्यवाही वित्तीय अपराधियों को बचाने का एक प्रयास साबित नहीं होगी? एक अलाभकारी संस्था को समस्याओं से उबारने के चक्कर में कहीं सरकार दूसरी बहुत बड़ी भूल तो नहीं कर रही। ऐसी कार्यवाही करने से पहले सरकार को स्टेट बैंक के अनुभव का विश्लेषण करना चाहिए। अभी हाल ही में भारतीय महिला बैंक सहित पांच अन्य बैंकों के स्टेट बैंक के साथ विलय करने के बाद स्टेट बैंक का मुनाफा काफी गिर गया। इसी तरह आईडीबीआई का एलआईसी में विलय करने का निर्णय बहुत व्यापारिक और व्यावहारिक नहीं रहा।
कॉरपोरेट जगत में विलय और अधिग्रहण व्यापार बढ़ाने के महत्वपूर्ण हथियार माने गए हैं परंतु विलय और अधिग्रहण पूरी तरह से व्यापारिक और आर्थिक निर्णय पर होना चाहिए , न कि राजनीतिक दबाव की वजह से। जब सरकार ने पब्लिक सेक्टर के बैंकों को बढ़ाने के लिए अपने पेशेवर विशेषज्ञों के साथ उनका एक बोर्ड बना रखा है तो ऐसे में सरकार को इस तरह के निर्णय स्वयं नहीं लेने चाहिए। सरकार को वित्तीय संस्थाओं में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए और बैंक कार्यकारिणी दलों का ऐसा ढांचा बनाना चाहिए, जिसमें राजनीतिक दखलंदाजी की संभावनाएं न के बराबर हों, जिसकी वजह से अनियंत्रित अलाभकारी परिस्थितियों से बचा जा सके।
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