चीन और जर्मनी के नव- वणिकवाद से सुरक्षा (Neo mercantilism)

 

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पिछले दो दशकों में चीन और जर्मनी ‘विनिमय दर संरक्षण’ के जरिये नव-वणिकवादी (नीओ-मर्केन्टलिज्म) नीतियों पर चलते रहे हैं। निर्यात पर परोक्ष सब्सिडी और आयात शुल्क के जरिये व्यापार आधिक्य की स्थिति पैदा करने के लिए एक अवमूल्यित वास्तविक विनिमय दर रखी गई। खासकर चीन के व्यापार अधिशेष को लेकर अमेरिका में कुछ उसी तरह की चिंता रही है जैसी 1980 के दशक में जापान को लेकर रहती थी। जापान के संदर्भ में स्वैच्छिक निर्यात पाबंदियों (वीईआर) के माध्यम से समाधान निकाला गया। वीईआर के तहत कार और सेमी-कंडक्टर के जापानी निर्यातक एक निर्धारित कोटा में ही अमेरिका को निर्यात करने पर सहमत हुए थे। इसमें एक प्रावधान यह था कि निर्यात कोटा में समाहित अप्रत्यक्ष तटकर अमेरिका को नहीं, निर्यातकों को वसूलना था। यह अमेरिकी उपभोक्ताओं के लिए दोहरा घाटा था।

आयात की बढ़ी हुई दरों के अलावा उन्हें विदेशियों को अप्रत्यक्ष तटकर राजस्व भी देना होता था। 1990 के दशक से ही अमेरिका ने चीन के बढ़ते चालू खाता अधिशेष को थामने के लिए अपने वित्त मंत्री के फैसलों को जरिया बनाने की कोशिश की। इसमें चीन की नॉमिनल विनिमय दर में छेड़छाड़ की संभावनाओं को परखा जाता था। भुगतान संतुलन के ऑस्ट्रेलियाई मॉडल से देखें तो ऐसा करना अनुचित लग सकता है। ‘इकनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली’ में नवंबर 2003 में प्रकाशित एक लेख में दीपक लाल, सुमन बेरी और देवेंद्र कुमार पंत ने इसे भारतीय संदर्भ में पेश किया था। एक छोटी मुक्त अर्थव्यवस्था के लिए वास्तविक एवं मौद्रिक पक्षों को समाहित करने वाले इस मॉडल में वास्तविक विनिमय दर महत्त्वपूर्ण सापेक्षिक कीमत है। सापेक्षिक कीमत गैर-वाणिज्यिक उत्पाद की कीमत और वाणिज्यिक उत्पाद की कीमत का अनुपात होती है। गैर-वाणिज्यिक उत्पाद की कीमत का निर्धारण घरेलू मांग एवं आपूर्ति के आधार पर होता है जबकि वाणिज्यिक उत्पाद की कीमत उसके वैश्विक कीमत और नॉमिनल विनिमय दर से तय होती है।

यह देखा जा सकता है कि नॉमिनल विनिमय दर और राजकोषीय-सह-मौद्रिक नीति के माध्यम से आंतरिक संतुलन कायम रखा जाता है। घरेलू व्यय को घरेलू आउटपुट के बराबर पहुंचाकर गैर-वाणिज्यिक उत्पाद की कीमत में बढ़ोतरी या गिरावट के जरिये वास्तविक विनिमय दर में अंतर्जात बदलाव कर वाह्य संतुलन को साधा जाता है और उसमें कोई भी व्यापार घाटा या अधिशेष नहीं होता है। पूरी तरह अस्थिर विनिमय दर व्यवस्था में नॉमिनल विनिमय दर बदलकर वास्तविक विनिमय दर में जरूरी बदलाव लाया जा सकता है। फिर गैर-वाणिज्यिक उत्पाद की कीमत में बदलाव की भी जरूरत नहीं रह जाती है।

चालू खाता अधिशेष की स्थिति पैदा करने के लिए विनिमय दर को बनाए रखने हेतु वास्तविक विनिमय दर में मूल्यह्रास की जरूरत होगी और घरेलू व्यय को घरेलू आउटपुट से नीचे रखना होगा। मानक राष्ट्रीय आय और बचत को निवेश से अधिक और निर्यात को आयात से अधिक होना होगा। इसी वजह से ‘बचत प्रचुरता’ और ‘वैश्विक असंतुलन’ आज अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय बना हुआ है। सुनिश्चित विनिमय दर वाली एक व्यवस्था में घरेलू व्यय में कटौती गैर-वाणिज्यिक उत्पाद की आपूर्ति बढ़ा देगी जिससे कीमतों में गिरावट आने लगेगी और इस तरह वास्तविक विनिमय दर कम हो जाएगी। यह दर्शाता है कि अगर नॉमिनल विनिमय दर के जरिये ही मुद्रा परिचालन को देखें तो वह अनुचित होता है।

आकस्मिक वास्तविक विनिमय दर का अनुमान लगाने और समतुल्य वास्तविक विनिमय दर से इसके विचलन पर नजर रखने की जरूरत है। वास्तविक विनिमय दरों के अनुमान की कुछ कोशिशें हुई हैं क्योंकि इसके लिए अनगिनत उत्पादों की कीमत संबंधी आंकड़े जुटाने की जरूरत होती है ताकि समग्र गैर-वाणिज्यिक उत्पाद की कीमत का अनुमान लगाया जा सके। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) एवं भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा सूचित वास्तविक प्रभावी विनिमय का इस्तेमाल करने का विकल्प भी अनुचित है क्योंकि क्रयशक्ति अनुपात पर आधारित होने से यह नॉमिनल विनिमय दर को घरेलू एवं वाह्य कीमत स्तरों के अंतर के हिसाब से संशोधित करता है। लेकिन वास्तविक विनिमय दर का प्रतिनिधि होने से इसे तभी जायज ठहराया जाता है जब अर्थव्यवस्था में कोई भी गैर-वाणिज्यिक उत्पाद न हों।

किसी देश के विनिमय दर संरक्षण में लिप्त होने का इकलौता तरीका यह है कि क्या वह लंबे समय तक लगातार बहुस्तरीय व्यापार अधिशेष की स्थिति में है? आंकड़े वर्ष 2007 से चीन और जर्मनी के चालू खाता संतुलन को दर्शाते हैं। इससे साफ होता है कि दोनों देश वास्तविक विनिमय दर संरक्षण में संलग्न हैं। लेकिन हम देख चुके हैं कि एक अवमानित वास्तविक विनिमय दर से व्यापार अधिशेष तक पहुंचने के लिए पूरक नीति यह है कि एक स्फीतिकारक वृहद आर्थिक नीति अपनाई जाए जो घरेलू व्यय को घरेलू आउटपुट से नीचे रखे। ब्रेटन वुड्स समझौते के रणनीतिकारों की भी भुगतान संतुलन की समायोजन प्रक्रिया को लेकर यही चिंता थी। चालू खाता घाटा की गंभीर समस्या से जूझ रहे देशों को वृहद आर्थिक नीतियों के जरिये आंतरिक एवं वाह्य संतुलन बनाए रखने और विनिमय दर ह्रïास के जरिये व्यय फेरबदल की जरूरत थी। लेकिन इस तरह की बाध्यता चालू खाता अधिशेष वाले देशों पर नहीं लगाई गई थी। इस असाम्यता के दुष्परिणामों का सबसे अच्छा उदाहरण यूरो मंडल का हिस्सा बनते समय जर्मनी का क्लब मेड देशों के साथ बरताव था। जर्मनी ह्रïासित विनिमय दर पर यूरो का हिस्सा बना था जिसकी वजह से उसे विनिमय दर संरक्षण मिला जबकि घाटे से जूझ रहे ग्रीस जैसे देश को अपने कर्जों और भुगतान संतुलन की समस्या से निपटने के लिए छोड़ दिया गया।

घाटे से बेहाल देशों के असाम्य समायोजन बोझ में इस कमी को आईएमएफ की धारा 7 के तहत पूरा किया गया जो ‘दुर्लभ मुद्रा प्रावधान’ की बात करता है। यह धारा घाटे में चल रहे देशों को अधिशेष वाले देश (जिसकी मुद्रा को आईएमएफ ने दुर्लभ घोषित कर दिया हो) से आयात पर रोकने का अधिकार देती है जबकि अन्य देशों के साथ वे पूर्ववत कारोबार कर सकते हैं। दुर्लभ मुद्रा का प्रावधान द्वितीय विश्व युद्ध के बाद लागू मार्शल प्लान की तरह अभी तक लागू नहीं किया गया है। चीन ने 1980 के दशक में जब अपनी अर्थव्यवस्था को खोलना शुरू किया तो अमेरिका ने चीनी वणिकवाद को लेकर अपनी आंखें बंद कर ली। उसे उम्मीद थी कि समृद्ध देश होने के साथ ही चीन उदार लोकतांत्रिक देश बन जाएगा। लेकिन यह उम्मीद धराशायी हो चुकी है और राष्ट्रपति शी चिनफिंग की अगुआई में चीन अब अपना असली रंग दिखाने लगा है। चीन अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने के लिए सर्वाधिकारवादी पूंजीवाद को जरिया बना रहा है। चीन अपने अधिशेष का इस्तेमाल अपने नए साम्राज्य में ‘मातहत’ देशों को शामिल करने के लिए कर रहा है

लगता है कि चीन की इस चुनौती को राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने समझ लिया है। लेकिन चीन के साथ उनकी व्यापार रणनीति तभी सशक्त होगी जब व्यापार पाबंदियों को वैधानिक रूप देने के लिए दुर्लभ मुद्रा का प्रावधान लागू किया जाए। आखिर में, जर्मनी के अधिशेष से निपटने के लिए यूरोपीय सेंट्रल बैंक से भी आईएमएफ के दुर्लभ मुद्रा प्रावधान को लागू करने के लिए कहा जाना चाहिए। इस प्रावधान को लागू करने के तमाम विकल्प सुझाए जाते रहे हैं लेकिन वे भरोसा जगा पाने में नाकाम रहे हैं। अगर आईएमएफ चीन और जर्मनी पर दुर्लभ मुद्रा प्रावधान लागू करने के लिए राजी नहीं होता है तो फिर ट्रंप प्रशासन के एकतरफा व्यापार प्रतिबंधों को सही माना जाएगा

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