अभी हाल तक लग रहा था कि यूरोप की स्थिति काफी बेहतर है। यूरो क्षेत्र में वृद्घि दर की वापसी हो गई थी। यूरोप की कई संकटग्रस्त अर्थव्यवस्थाएं सुधार की राह पर थीं और यूरोपीय क्षेत्र की अवधारणा काफी सुरक्षित नजर आ रही थी। खासतौर पर ब्रेक्सिट के बाद के हालात में जब यहां के लोगों को यूरोपीय संघ के महत्त्व का एहसास हुआ था। परंतु अब यूरोप की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और दुनिया की आठवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश इटली में उत्पन्न संकट से यह स्थिरता खतरे में दिख रही है।
Ø इटली में मार्च में हुए आम चुनाव में लोकलुभावन कदम उठाने वालों की जीत होने के बाद से ही उसे कमजोर कड़ी माना जाने लगा था। उनमें से कई तो खुलकर यूरोप के आदर्शों और संस्थानों का विरोध करते हैं
Ø देश में सरकार गठित करने की उन दलों की कोशिश नाकाम हो गई जो अपने मतभेदों के लिए कुख्यात हैं। दरअसल राष्ट्रपति सर्जियो मात्तारेला ने यूरो क्षेत्र को लेकर शंकालु वित्त मंत्री की नियुक्ति के प्रस्ताव को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। राष्ट्रपति इटली के अंतरराष्ट्रीय दायित्वों के संरक्षक भी हैं। परंतु उनके इस निर्णय से लोकलुभावन सरकार के पश्चिमी यूरोप की ओर के दरवाजे भले ही बंद हो गए हों, लेकिन चुनाव के रास्ते अवश्य खुल गए हैं जहां दक्षिणपंथी अतिवादी और अधिक शक्तिशाली होकर सामने आ सकते हैं।
राष्ट्रपति ने कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में जो चयन किया है उसने कई लोगों को नाराज कर दिया है क्योंकि यह उन लोगों को कतई रास नहीं आ रहा है जिन्होंने एक लोकलुभावन सरकार का चुनाव किया था। उन्होंने कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में आईएमएफ के एक पूर्व अधिकारी का चयन किया है जिन्हें इटली में मिस्टर ‘सीजर’ के नाम से जाना जाता है। उन्हें यह नाम अलोकप्रिय और कटौती भरी नीतियों के प्रति लगाव के कारण मिला है। ऐसा लगता नहीं कि उनके पास इतना समय या गुंजाइश होगी जो ऐसे गहन ढांचागत सुधारों को अंजाम दे सके जिसकी इटली को जरूरत है। देश में लालफीताशाही है, करों की दर अधिक है, वृद्घि दर बमुश्किल 1.5 फीसदी है, युवाओं की बेरोजगारी दर 30 फीसदी के स्तर से अधिक है और देश का कर्ज जीडीपी के 133 फीसदी के बराबर है।
आसन्न चुनावों की आशंका ने बाजार को हिला दिया है। हालांकि इटली के ग्रीस की तरह विफल होने की आशंका नहीं है परंतु उसका आकार इतना बड़ा है कि उसे राहत पैकेज देना भी आसान नहीं होगा। परंतु इटली की सरकारी प्रतिभूतियों में कुछ ही घंटे में गिरावट नजर आई। प्रश्न यह है कि क्या पिछले यूरो संकट की तरह इस बार भी यूरोपीय शेयरों के मूल्य में गिरावट आ सकती है। उस बार निवेशकों ने अपना निवेश अमेरिका और ब्रिटेन के सॉवरिन ऋण में डाल दिया था। बाजार से नकदी नदारद हो गई क्योंकि बड़े कारोबारी पीछे हट गए। पूरा दक्षिणी यूरोप संकट में नजर आ रहा है। स्पेन में प्रधानमंत्री मारियानो राजॉय के खिलाफ अविश्वास मत के कारण वहां भी अस्थिरता का माहौल है।
अगर राजनीतिक जोखिम का असर यूरोप में निवेशकों के रुख पर पड़ता है तो भारत समेत तमाम उभरते बाजारों के लिए इसके संकेत भी एकदम स्पष्टï हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसका असर उभरते बाजारों की प्रतिभूतियों पर पड़ सकता है और इसका दूसरा नुकसान भी हो सकता है। पहले ही बीते दो महीनों में निवेशकों ने 7 अरब डॉलर मूल्य के भारतीय शेयरों और बॉन्ड की बिकवाली की है। ऐसे में इस प्रक्रिया के गहन होने की पूरी आशंका है। भारत के लिए यह भी दोहराने का समय है कि देश के सबसे बड़े कारोबारी साझेदार यूरोप में संकट स्थानीय कंपनियों और कामगारों को आसानी से दिक्कत में डाल सकता है
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