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केंद्र सरकार ने संकटग्रस्त सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण की घोषणा की ताकि इनको फंसे हुए कर्ज के दुष्चक्र से उबारा जा सके। इस कर्ज के चलते ही बैंकों को नया ऋण देने में दिक्कत आ रही है। इसी के चलते देश की बैंकिंग ऋण वृद्घि 25 साल के निम्रतम स्तर पर है और निजी निवेश एकदम अवरुद्घ है। लंबी अनदेखी के बाद आखिरकार सरकार ने इन बैंकों को जरूरी मदद मुहैया कराना तय किया है।
ये देश की कुल बैंकिंग में 70 फीसदी हिस्सेदारी रखते हैं। 2.11 लाख करोड़ रुपये की यह योजना दो साल में विस्तारित है। पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के अधीन आरबीआई ने बैंकों की परिसंपत्ति गुणवत्ता की जांच की व्यवस्था की थी। इसके चलते बैंकों को फंसे हुए कर्ज को उजागर करना पड़ा था और निपटान की व्यवस्था बतानी पड़ी थी। इसके बाद से ही सरकारी बैंकों की व्यवहार्यता संकट में थी। एक तिमाही के बाद अगली तिमाही में बैंक, खासतौर पर सरकारी बैंक फंसे हुए कर्ज के बढ़ते जोखिम को स्वीकार करते गए। उनसे निपटने का प्रावधान करने में ही उनका अधिकांश मुनाफा खप जाता। सरकारी बैंक इस सबसे बुरी तरह प्रभावित हैं। बुनियादी ढांचागत क्षेत्र को सबसे अधिक ऋण उन्होंने ही दिया है। समय बीतने के साथ-साथ सरकार के लिए चयन और स्पष्टï होता गया: या तो कुछ डूबते सरकारी बैंकों का निजीकरण किया जाए या फिर उनका पुनर्पूंजीकरण किया जाए। पहला विकल्प राजनीतिक रूप से व्यवहार्य नहीं था और दूसरा विकल्प राजकोषीय घाटे की दृष्टिï से ठीक नहीं था। अगस्त 2015 के एक अनुमान के मुताबिक सन 2018-19 तक 1.8 लाख करोड़ रुपये के पूंजीकरण की आवश्यकता थी। सरकार ने 51,858 करोड़ रुपये की राशि ही इनमें डाली।
पुनर्पूंजीकरण के बारे में कई बातें अभी विस्तार से सामने आनी बाकी हैं लेकिन कुछ बातें बिंदुवार ढंग से सामने हैं। मसलन RBI GOVERNOR द्वारा जारी बयान में कुछ बातें स्पष्ट होती हैं। उदाहरण के लिए उन्होंने कहा कि जारी किए जाने वाले बॉन्ड नकदी निरपेक्ष हो सकते हैं और घाटे में इजाफा होगा लेकिन यह मामूली हो सकता है और ऐसे बॉन्ड पर चुकाए जाने वाले ब्याज तक ही सीमित रहेगा। देश के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन का इस पर एकदम अलग विचार है। उनके मुताबिक मौजूदा लेखा व्यवहार के अधीन जो कि अंतरराष्टï्रीय मुद्रा कोष से एकदम अलग हैं, सरकारी बॉन्ड न केवल सरकारी कर्ज में इजाफा करेंगे बल्कि राजकोषीय घाटे में भी इनकी बदौलत बढ़ोतरी होगी। वित्त मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा कि नई पूंजी के आवंटन की प्रासंगिकता इस बात पर भी निर्भर होगी कि बैंक इसका इस्तेमाल कितने प्रभावी ढंग से कर रहे हैं और फंसे हुए कर्ज से कैसे निपट रहे हैं। सवाल यह है कि क्या इससे देश की दोहरी बैलेंस शीट की समस्या कुछ हद तक हल होगी? इसका जवाब आसान नहीं है। भारी पैमाने पर किया जाने वाला पुनर्पूंजीकरण जहां सरकारी बैंकों को ऋण संबंधी चुनौतियों से निपटने में मदद करेगा, वहीं दो अन्य मुद्दे भी हैं। पहला, यह बहस अभी खत्म नहीं हुई है कि असली दिक्कत क्या थी ऋण की आपूर्ति या उनकी मांग में कमी। दूसरा मुद्दा अधिक गंभीर है। सरकार को अब सरकारी बैंकों के लंबित प्रशासनिक सुधारों पर भी ध्यान देना होगा। अगर ऐसा नहीं होता है तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है नई पूंजी का समझदारी भरा उपयोग होगा।