बंदरगाह सुधार और सरकार के कदम

देश की अर्थव्यवस्था में बंदरगाहों की बड़ी अहमियत है। इसके बावजूद देश में जितनी भी सरकारें बनी हैं, सभी ने सरकारी स्वामित्व वाले बंदरगाहों के लिए नीतिगत सुधारों की दिशा में बहुत कम ध्यान दिया है। यह तथ्य हमेशा अचंभित करता रहा है। सड़क, दूरसंचार, विद्युत, नागरिक उड्डयन जैसे सभी अन्य क्षेत्रों में सुधार देखने को मिले हैं या कम से कम उनमें सुधार की दिशा में गंभीर प्रयास किए गए हैं, लेकिन तुलनात्मक रूप से बंदरगाह क्षेत्र पर कम ध्यान दिया गया है। 

 

यहां तक कि आज भी तथाकथित 'प्रमुख बंदरगाहों' को 1960 के दशक में बनी शुल्क एवं नीतिगत प्रणाली का पालन करना पड़ रहा है।  देश के समुद्री मालवहन में करीब 55 फीसदी हिस्सेदारी इनमें से 12 की है। इन बंदरगाहों का शुल्क एक केंद्रीय प्राधिकरण- द सेंट्रल अथॉरिटी ऑफ मेजर पोट्र्स (टेंप) तय कर रहा है। अन्य बहुत से परिचालन और वाणिज्यिक मामलों का नियंत्रण भी टेंप के हाथों में है। यह तो वैसे ही है मानो दूरसंचार मंत्रालय दिल्ली से आदेश जारी कर देश भर में फोन शुल्क दरें तय करे या विद्युत मंत्रालय देश भर में सभी विद्युत वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) के लिए बिजली की दरें तय करे। 

 

इसके नतीजतन कारोबार का एक बड़ा हिस्सा उन 'गैर-प्रमुख' या 'निजी' बंदरगाहों के पास चला गया है, जिनका एक ज्यादा उदार व्यवस्था के तहत परिचालन होता है और वे राज्य सरकारों के नियंत्रण में आते हैं। केयर की एक रिपोर्ट के मुताबिक माल की कुल आवाजाही में गैर-प्रमुख बंदरगाहों का हिस्सा वर्ष 2016 में बढ़कर 43 फीसदी हो गया, जो 1981 में 10 फीसदी था। मुंद्रा, काकीनाडा और पीपावाव जैसे ऐसे बंदरगाह न केवल परिचालन के लिहाज से ज्यादा कुशल हैं बल्कि इन्होंने माल की सुगम आवाजाही के लिए देश के भीतरी हिस्से से बेहतर संपर्क विकसित किया है। 

 

गुजरात के गैर-प्रमुख बंदरगाह पीपावाव ने सुगम परिवहन के लिए देश के भीतरी हिस्सों से बेहतर संपर्क विकसित किया है। हालांकि प्रमुख बंदरगाहों में निजी क्षेत्र माल की आवाजाही को संभालने जैसे क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। लेकिन ड्रेजिंग (बड़े जहाजों की आवाजाही को संभव बनाने के लिए बंदरगाह की गहराई बढ़ाने) और नए टर्मिनल बनाने में निवेश के जरिये निजी क्षेत्र की भागीदारी और बढ़ाने की जरूरत है। 

 

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सागरमाला परियोजना 2015 में शुरू हुई। इसका मकसद बंदरगाहों की क्षमता बढ़ाना, बंदरगाहों की परिचालन कुशलता और देश के भीतरी क्षेत्रों से संपर्क सुधारना है ताकि माल का सुगमता से परिवहन हो सके। अब तक 125 परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं, जिन पर 31,000 करोड़ रुपये की लागत आई है। इन परियोजनाओं में से ज्यादातर (22,000 करोड़ रुपये की परियोजनाएं) बंदरगाहों के बुनियादी ढांचे के आधुनिकीकरण के लिए थीं। 

 

बंदरगाहों के बुनियादी ढांचे में निवेश के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अगला तार्किक और अहम कदम उठाया है ताकि बंदरगाह नए बुनियादी ढांचे- परिचालन नीति सुधारों का फायदा उठा सकें। मंत्रिमंडल ने 12 फरवरी को एक विधेयक- द मेजर पोट्र्स अथॉरिटी बिल 2020 को मंजूरी दे दी। इसका मकसद प्रमुख बंदरगाहों के प्रशासनिक ढांचे में व्यापक बदलाव करना है। यह विधेयक 1963 के अधिनियम की जगह लेगा। इसलिए टेंप का दौर खत्म होने का जा रहा है, जिसकी अब तक सरकारी बंदरगाह प्रणाली पर मजबूत पकड़ थी। 

 

दरअसल ऐसा पहला कदम 2016 में उठाया गया था, लेकिन यह विधेयक पारित नहीं हो पाया क्योंकि पिछले साल लोकसभा चुनाव से पहले संसद को स्थगित कर दिया गया। इस वजह से विधेयक रद्द हो गया। हालांकि हाल में मंत्रिमंडल द्वारा मंजूर विधेयक के सभी ब्योरों का पता नहीं चला है, लेकिन यह 2016 के विधेयक की तर्ज पर होने के आसार हैं। 

 

वर्ष 2016 के विधेयक में प्रमुख बंदरगाहों को ज्यादा स्वायत्तता दी गई थी। इसमें खुद ही शुल्क तय करने का अधिकार भी शामिल है। शुल्क में स्वायत्तता के अलावा 2016 के विधेयक में बंदरगाहों के बोर्डों को केंद्र सरकार की मंजूरी के बिना बैंकों एवं वित्तीय संस्थानों से धन (आरक्षित पूंजी के 50 फीसदी तक) जुटाने की मंजूरी दी गई थी।

 

इसमें बंदरगाह और निजी क्षेत्र के ठेकेदारों के बीच पीपीपी परियोजनाओं को लेकर विवाद के समाधान के लिए केंद्रीकृत मध्यस्थता बोर्ड स्थापित करने का प्रावधान किया गया था। अगर इन उपायों को ताजा विधेयक में शामिल किया गया है तो इनसे प्रमुख बंदरगाह निजी क्षेत्र के लिए निवेश और सेवा प्रदाताओं के रूप में ज्यादा आकर्षक बन जाएंगे। इस समय प्रमुख बंदरगाहों पर कार्गो हैंडलिंग की सेवाएं देने वाले निजी ऑपरेटरों को टेंप को अपने शुल्क का भुगतान करना होगा। यह साफ तौर पर एक अच्छा नतीजा नहीं है। 

 

अगर पिछले कुछ वर्षों में हुए निवेश का फायदा उठाना है तो इन सुधारों को अमलीजामा पहनाना होगा। केयर की रिपोर्ट में कहा गया कि बंदरगाहों के लिए ज्यादा उदार प्रणाली के सकारात्मक असर गुजरात में सबसे बेहतर दिखते हैं, जो व्यापार और विकास के बंदरगाह आधारित मॉडल में अगुआ था। गुजरात मैरिटाइम बोर्ड राज्य में 41 गैर-प्रमुख बंदरगाहों का प्रशासनिक कामकाज संभालता है। इन बंदरगाहों का देश में गैर-प्रमुख बंदरगाहों के जरिये होने वाली माल की कुल आवाजाही में 70 फीसदी हिस्सेदारी (वर्ष 2017 में ) है।  गुजरात की वृद्धि दर बढऩे में बंदरगाह बुनियादी ढांचा और लॉजिस्टिक्स की अहम भूमिका रही है। गुजरात की वृद्धि 1980 के दशक में पांच फीसदी से थोड़ी अधिक थी, जो 1990 के दशक में 8 फीसदी से ऊपर पहुंच गई। 

 

जहाजरानी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए हाल के वर्षों में कई कदम उठाए गए हैं। इनमें सागरमाला परियोजना से लेकर जलमार्ग के जरिये माल ढुलाई को प्रोत्साहन देने के लिए करों में बदलाव, बंदरगाह आधारित सेज का विकास और मेगा पोर्ट आदि शामिल हैं। पोर्ट अथॉरिटी बिल को संसद की मंजूरी मिलने से एक खाई पट जाएगी। 

Reference: Business Standard

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