देश के ग्रामीण इलाकों में लंबे समय से व्याप्त निराशा चिंता का विषय बन चुकी है। ग्रामीण क्षेत्रों में आय पर बढ़ रहे दबाव की एक पहचान यह है कि वहां मेहनताने की दर अत्यंत कम है। इस वर्ष जनवरी तक औसत ग्रामीण आय वृद्घि में 3 फीसदी की गिरावट देखने को मिली थी। यह वृद्घि दर 2014 के बाद से न्यूनतम है। हकीकत में ग्रामीण क्षेत्रों में मेहनताने में एक अरसे से ठहराव देखने को मिल रहा है। वर्ष 2014 के मध्य में जब केंद्र राजग गठबंधन की सरकार आई तब से इसमें काफी धीमी वृद्घि देखने को मिली है। वर्ष 2014 के बाद से अब तक और 2007 से 2013 के बीच की ग्रामीण आय वृद्घि के आंकड़ों में अंतर देखें तो वे चौंकाने वाले हैं। श्रम आयोग के मुताबिक वर्ष 2014 से पहले वास्तविक ग्रामीण आय वृद्घि ने दो अंकों का स्तर छू लिया था।
आखिर ग्रामीण क्षेत्र की आय में यह ठहराव क्यों आया होगा?
- इसका एक उत्तर यह है कि देश को बीते चार साल में दो बार सूखे का सामना करना पड़ा।
- यह भी सच है कि आमतौर पर वृद्घि में धीमापन आया है। परंतु यह अपने आप में पूरी व्याख्या नहीं करता क्योंकि वृद्घि दर में गिरावट तो 2013 के पहले से ही शुरू हो गई थी। इसमें बाद में गति आई। भारतीय रिजर्व बैंक के शोध विभाग ने हाल ही में एक प्रपत्र जारी किया है जिसमें वर्ष 2001 के बाद के आंकड़ों की समीक्षा की गई है।
यह प्रपत्र कुछ ऐसे नतीजों पर पहुंचता है जिनका परीक्षण करना आवश्यक है। खासतौर पर ऐसा प्रतीत होता है कि वर्ष 2014 के बाद से मुद्रास्फीति में लगातार कमी का संबंध काफी हद तक ग्रामीण आय में ठहराव से है। वर्ष 2014 के पहले खाद्य उत्पादों की महंगाई ने कृषि क्षेत्र में वृद्घि उत्पन्न की और इसके चलते उन लोगों की आय में इजाफा हुआ जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि क्षेत्र से जुड़े थे या उस पर निर्भर थे। संभव है कि 2014 के बाद से निर्यात और आयात मूल्य का अनुपात कृषि क्षेत्र के खिलाफ हो गया और गैर कृषि क्षेत्र की वस्तुएं कृषि उपज की वस्तुओं की तुलना में लगातार महंगी होती जा रही हैं। इससे ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की क्रय शक्ति कमजोर होने लगी। ग्रामीण आय की वृद्घि दर को प्रभावित करने वाले अन्य अहम कारक भी हैं। इनमें से एक है गैर कृषि ग्रामीण उत्पादन में मजबूती। हमारे देश में विनिर्माण क्षेत्र श्रम की ढेर सारी मांग की खपत कर लेता है। आरबीआई के प्रपत्र में कहा गया है कि विनिर्माण क्षेत्र के मेहनताने ने ग्रामीण क्षेत्र के मेहनताने पर सकारात्मक असर डाला है। विनिर्माण में मंदी ने श्रम की मांग कम की है। इससे अकुशल कर्मियों की आय कमजोर हुई है। इससे ग्रामीण आय प्रभावित हुई है।
हम जानते हैं कि हमारे देश में ग्रामीण आय काफी हद तक कामगारों की मोलभाव करने की क्षमता पर निर्भर करती है। महात्मा गांधी राष्टï्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) जैसी रोजगार योजना 2000 के दशक के मध्य से आरक्षित ग्रामीण आय का प्रतीक रही है। आंकड़ों और प्रमाण से पता चलता है कि इससे ग्रामीण आय बढ़ाने में मदद मिली है। हाल के वर्षों में मनरेगा के तहत प्रति परिवार काम के दिनों की तादाद लगातार कम हुई है। ऐसा तब है जबकि दो सूखे के कारण काम की काफी मांग रही। इससे पता चलता है कि सरकार को किस दिशा में पेशकदमी करनी है। उसे राज्यों को मनरेगा के भुगतान में देरी करना बंद करना चाहिए और इस योजना को प्रभावी ढंग से लागू करना चाहिए।