Gkobal tax disputes
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जी 20 और ओईसीडी देशों के बेस इरोजन ऐंड प्रॉफिट शिफ्टिंग (बीईपीएस) कार्यक्रम के साथ ही वैश्विक स्तर पर कर विवादों का मामला एक बार फिर केंद्र में आ गया है। बीईपीएस ऐक्शन 13 विशिष्टï रूप से इन मामलों से निपटता है जबकि ऐक्शन 15 अन्य बातों पर ध्यान केंद्रित करता है। मसलन यह देखना कि विवाद निस्तारण के लिए साझा मंच तैयार करने के लिए विभिन्न देश कैसे आगे आएं। ऐसे विवादों को लेकर विश्लेषण तीक्ष्ण हुआ है और इनके नतीजे कहीं अधिक सार्थक हुए हैं। हाल ही में लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स (एलएसई) के एक सेमिनार में यह रोचक निष्कर्ष सामने आया कि केवल विवादों की गिनती करने से भ्रामक निष्कर्ष निकल सकते हैं। बल्कि उनका आकलन समुचित और सामान्य रूप से किया जाना चािहए और उसके बाद ही संभावित निवेशकों के लिए प्रवेश लागत और निर्गम लागत का आकलन किया जाना चाहिए। इसलिए क्योंकि विवाद निस्तारण में उनकी अहम भूमिका होती है।
बैस्ट्रोकी और हियरसन ने सभी जी 20 देशों को ध्यान में रखते हुए सामान्यीकरण की प्रक्रिया का चरणबद्घ तरीका प्रस्तुत किया है। अंतरराष्ट्रीय कर विशेषज्ञ द्वारा ‘जी 20 लीडिंग टैक्स ट्रीटी केस डाटासेट’ के नाम से एक विशेषज्ञ सर्वे तैयार किया गया। पहले केवल कर संधियों से जुड़े विवादों को चिह्निïत किया गया। उसके बाद अदालती मामलों को चुनकर इन्हें और कम किया गया। तीसरा, इसकी समयावधि को बीईपीएस रिपोर्ट के पहले के युग यानी 1923 से 2015 के बीच सीमित किया गया। चौथा, इनमें से केवल प्रमुख मामलों को चुना गया जिनका जिक्र एक बार अदालत में या कर प्रशासन द्वारा किया गया हो।
इस दौरान दो मानक कवायद की गईं।
पहला, देश के विशेषज्ञों द्वारा बनाई गई हर सूची की तुलना उसी विशेषज्ञ द्वारा एक वैकल्पिक सूची से की गई जिसे इंटरनैशनल ब्यूरो ऑफ फिस्कल डॉक्युमेंटेशन (आईबीएफडी) के डाटाबेस से तैयार किया गया था। इसका मकसद था यह देखना कि अगर कोई विसंगति थी तो क्यों थी। दूसरा वर्ष 2015 में एलएसई में होने वाले सम्मेलन में एक प्रमुख मामले की एक विशिष्टï परिभाषा पर चर्चा की गई ताकि इस संबंध में तमाम मतभेदों को दूर किया जा सके और राष्ट्रीय विधि व्यवस्था की कमियों को दूर किया जा सके। ऐसा इसलिए हुआ ताकि प्रमुख कर संधि विवादों में समान परिभाषा नजर आए।
परंतु हर देश में विशिष्टï मामलों की विशिष्टï संख्या मामलों को उन देशों की ओर झुका देगी जिनके यहां पहले से यह परंपरा रही हो कि मामलों को अदालती फैसलों के पहले परखा जाए, भले ही ऐसे प्रमाण उस विशिष्टï मामले से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित न हों। जर्मनी और भारत में ऐसा हो चुका है। इस कारक का सामान्यीकरण करने के लिए देश में कई प्रमुख मामलों को अदालत में लंबित कुल कर संधि मामलों के हिस्से के रूप में देखा गया। ऐसे में विश्लेषण किसी देश के कुल विवादों में एक खास किस्म के विवादों में से अपेक्षाकृत अहम विवादों पर केंद्रित रह जाता है।
इस संबंध में कई निष्कर्ष :
• पहला, 2000 के दशक में जी 20 देशों के वादों में एक तिहाई अमेरिकी संधियों से जुड़े होते थे। ब्रिटेन की हिस्सेदारी 10वें हिस्से के बराबर होती थी।
• दूसरी बात, स्विटजरलैंड, नीदरलैंड, बेल्जियम, स्पेन और जर्मनी भी शीर्ष 10 देशों में शामिल हैं। इस दृष्टिï से साइप्रस भी अहम है।
• तीसरा, इससे संधि करने वाले देशों के लिए अमेरिका का महत्त्व भी उजागर होता है। मसलन ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जापान, मैक्सिको और दक्षिण कोरिया के मामलों में आधे से ज्यादा विवाद अमेरिका के साथ ही हुए हैं। यहां विरोधाभासी बात यह है कि कनाडा और ब्रिटेन के साथ कर विवाद उसके कुल कर विवादों का महज पांचवां हिस्सा हैं।
• चौथी बात, अमेरिका, जर्मनी और स्विट्जरलैंड आदि ऐसे देश हैं जहां सबसे अधिक विवाद देखने को मिले हैं। समय बीतने के साथ इनमें बदलाव आता गया। उदाहरण के लिए सन 1990 के दशक में विवादों में हिस्सेदारी के मामले में स्विट्जरलैंड की जगह नीदरलैंड ने ले ली। वहीं सन 2000 के दशक में अमेरिका बेहद रसूखदार हो गया।
• पांचवीं बात, अधिकांश संधि विवाद उनके मूल देश में ही उपजे। ऐसे में जाहिर है उस देश के कर अधिकारियों में कर संधि कानून का प्रतिरोध करने की प्रवृत्ति दूसरे देशों से ज्यादा थी। ओईसीडी मॉडल कर संधि में कर अधिकार को स्रोत देश तक सीमित रखने में इस पूर्वग्रह को स्पष्टï महसूस किया जा सकता है।
• छठा, भारत एक स्रोत देश है। शोधकर्ताओं के आंकड़ों के मुताबिक सन 2000 के दशक में उसे भी कर संधि विवादों में भारी बढ़ोतरी का सामना करना पड़ा।
• सातवां, दशक दर दशक सरकारों की सफलता की दर गिरती जा रही है। क्योंकि अदालतों का रुख बदल रहा है और निजी क्षेत्र के अधिवक्ताओं की तादाद बढ़ती जा रही है। इससे यह भी पता लगता है कि कर अधिकारियों का रुख बहुत आक्रामक होता जा रहा है और उनकी सफलता की संभावना बहुत कम होती जा रही है।
• देश में ऐसे मामलों में सरकार की सफलता की कमजोर दर शायद बहुत चकित भी नहीं करती। हालांकि चीन में इनकी सफलता दर 100 फीसदी है। चीन स्वतंत्र अदालती निर्णयों की जगह केवल कर अधिकारियों के निर्णय पर चलता है यानी भारत और चीन एक ही तराजू के दो सिरों पर हैं
• नौवीं बात, कर संधियों के अनुच्छेदों की बात करें तो इनमें काफी अंतर देखने को मिलते हैं। स्थायी प्रतिष्ठïान की परिभाषा से जुड़े तीन चौथाई विवादों का निर्णय करदाताओं के पक्ष में जाता है लेकिन पूंजीगत लाभ के मामलों में केवल 20 फीसदी मामलों में ही जीत हासिल कर पाते हैं।
• दसवां, ओईसीडी के सदस्य अब इस तरह के वादों से परे हो गए हैं क्योंकि उनके यहां स्थायी प्रतिष्ठïान का ढांचा कमजोर हुआ है। परंतु पूंजीगत लाभ के मामलों में उनकी हिस्सेदारी काफी है।
• ग्यारहवां बिंदु यह है कि अकादमिक शोधकर्ता इस बात के स्पष्टï प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि ओईसीडी ने अब न्यायपालिका के बजाय आपसी समझौते की प्रक्रिया अपनानी शुरू कर दी है। उनका मानना है कि यह कहीं अधिक अस्पष्टï प्रक्रिया है क्योंकि पूरे तथ्य कभी सामने नहीं आते।
आखिर में, शोधकर्ताओं का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था एक चौरास्ते पर है। विभिन्न देशों के बीच कर प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने से वृद्घि को बल मिलेगा जबकि सूचनाओं का स्वचालित विनिमय पारदर्शिता लाएगा लेकिन वृद्घि को सीमित करेगा। कहना न होगा कि अंतरराष्ट्रीय कराधान में रुचि रखने वालों को इस दिशा में और पड़ताल करनी चाहिए। खासतौर पर उनको जो कर संधियों के विवाद निस्तारण पर काम कर रहे हों।