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इन दिनों ‘कारोबारी जंग’ शब्द सुर्खियों में है। सप्ताह दर सप्ताह नए कारोबारी प्रतिबंधों और शुल्क बढ़ाए जाने की घोषणाएं सामने आ रही हैं। इनके प्रतिरोध में भी ऐसे ही कदम उठाए जा रहे हैं। वैश्विक संगठन आर्थिक मंदी की चेतावनी दे रहे हैं लेकिन तनाव बढ़ता ही जा रहा है। प्रश्न यह है कि इन तमाम बातों के बीच विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) कहां है? उससे यही अपेक्षा तो की जाती है कि वह वैश्विक व्यापार और उससे जुड़े विवादों के निपटारे के नियम बनाएगा। इसका उत्तर यह है कि उसकी व्यस्तता शीघ्र बढऩे वाली है। चीन, भारत और अन्य देशों ने अमेरिका द्वारा इस्पात और एल्युमीनियम आयात पर शुल्क बढ़ाने को लेकर अपनी शिकायत दर्ज कराई है। इसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा को वजह बताया गया है। मामला 60 दिन की अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि के बाद शुरू होगा। अमेरिका द्वारा अपने कारोबारी कानून के एक अन्य हिस्से में पहली बार शुल्क थोपे गए हैं, उनकी भी परीक्षा होगी।
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने डब्ल्यूटीओ को ‘आपदा’ करार दिया और धमकी दी कि वह अमेरिका को संगठन से बाहर कर लेंगे। उनके कारोबारी कदमों की जांच होनी तो तय है लेकिन वे डब्ल्यूटीओ के नियमों से बाहर हों यह आवश्यक नहीं। अब तक जो कदम उठाए गए हैं वे काफी सीमित हैं। ऐसे में काफी हद तक यह संभव है कि डब्ल्यूटीओ एक संपूर्ण कारोबारी जंग को घटित होने से रोक दे। परंतु जोखिम बरकरार है और डब्ल्यूटीओ की सीमाएं उजागर हो रही हैं। वह दोहा दौर की बहुपक्षीय व्यापार वार्ता को सफलतापूर्वक समाप्त करने में नाकाम रहा। पुराने दौर की वार्ताओं की सफलता के बाद ऐसा होना इस बात का संकेत है कि उसकी एक भूमिका का लगभग अंत हो गया है। वह भूमिका है मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने की। हाल के वर्षों में उठाए गए अधिकांश कदम डब्ल्यूटीओ के बहुपक्षीय ढांचों से परे रहीं। अधिकांश वार्ताएं द्विपक्षीय रहीं या विविध पक्षों के समझौते।
डब्ल्यूटीओ का दूसरा अहम काम है कारोबारी विवादों का निपटारा। यह काम भी खतरे में नजर आ रहा है। विवादों के लिए उसकी अपील संस्था जल्दी ही निष्क्रिय हो सकती है। उसमें सात सदस्य हैं लेकिन तीन सीट इसलिए खाली हैं क्योंकि अमेरिका ने नई नियुक्तियों को रोक रखा है। अगर मौजूदा क्षमता में और कमी आती है तो इसकी बैठकों के लिए जरूरी कोरम ही पूरा नहीं होगा। यह विवाद निस्तारण प्रक्रिया के खात्मे के समान होगा। चाहे जो भी हो विवाद निस्तारण की प्रक्रिया में वर्षों का समय लगता है। इस दौरान गैर अनुपालन वाले शुल्क और प्रतिरोध में उठाए गए कदम बरकरार रखते हैं
चीन इस व्यवस्था का लाभ लेकर ऐसे शुल्क लगाता रहता है जिनके बारे में उसे अच्छी तरह पता होता है कि कुछ वर्ष की अदालती कार्यवाही के बाद ये समाप्त हो जाएंगे। परंतु उसे आंतरिक तौर पर तो इनसे लाभ मिल ही जाता है। इसके अलावा सफलतापूर्वक व्यापारिक शिकायत दर्ज करने वाले देश को केवल यह अधिकार मिलता है कि वह नुकसान पहुंचाने वाले देश पर बदले में जुर्मानास्वरूप शुल्क लगा सके। तेजी से बदलते परिदृश्य में जहां शुल्क पहले ही थोपे जा चुके हों, वहां शायद डब्ल्यूटीओ को भी लगता है कि विवाद निस्तारण अपनी भूमिका गंवा चुका है। इस बीच अमेरिका ने रूस, उत्तर कोरिया और ईरान जैसे देशों पर एकतरफा व्यापारिक तथा अन्य प्रतिबंध थोपे हैं। इसका असर अन्य देशों पर भी पड़ता है। उदाहरण के लिए भारत को ईरान से तेल या रूस से मिसाइल खरीदने में होने वाली दिक्कत। ऐसा कोई अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध नहीं है फिर भी यह प्रभावी है। अमेरिका अपनी विशिष्टï स्थिति का लाभ ले रहा है। उत्तर अटलांटिक संधि संगठन के वित्त पोषण की तरह यहां भी ट्रंप के पास वजह है।
डब्ल्यूटीओ की अपनी सीमाएं हैं। चीन की वाणिज्यिक गतिविधियां वर्षों से जारी हैं। जबकि इस बीच अमेरिका की कृषि सब्सिडी आदि के रूप में गलत कारोबारी नीतियां भी जारी हैं। डब्ल्यूटीओ अपने दम पर कदम नहीं उठा सकता। उसे सदस्य राष्ट्रों की पहल की प्रतीक्षा करनी होती है। शायद समग्र समीक्षा का वक्त आ गया है लेकिन सभी क्षेत्रों के अंतरराष्ट्रीय संस्थान इस अनुमान पर चलते हैं कि बड़े देश नियम कायदों से चलेंगे। अब ऐसा नहीं है। क्या ऐसा हो सकता है कि बड़े देशों को परे रखकर बाकी देश नियमों से चलें। जैसे अमेरिका को बाहर रखकर जापान प्रशांत पार साझेदारी पर काम कर रहा है। यह कारगर नहीं होगा क्योंकि दुनिया के दो सबसे बड़े कारोबारी देशों के बिना इसका कोई अर्थ नहीं। आसान विकल्प यही होगा कि डब्ल्यूटीओ में सुधार किया जाए और ट्रंप की कुछ शिकायतों की सुनवाई की जाए