बोझ बना स्वास्थ्य ढांचा


Health spending pushing many people in grip of poverty


#Dainik_Jagran
हाल में सामने आई विश्व बैंक और विश्व स्वास्थ्य संगठन की ट्रैकिंग युनिवर्सल हेल्थ कवरेज नामक रिपोर्ट यह बताती है कि भारत समेत विश्व के अधिकांश देशों की एक बड़ी आबादी इसलिए कर्जदार होकर गरीबी रेखा के नीचे पहुंच जा रही है, क्योंकि बीमारी की हालत में वह अपनी जेब से इलाज खर्च वहन करने को विवश होती है। यह रिपोर्ट नीति-नियंताओं की आंखें खोलने वाली है, क्योंकि लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना शासन में बैठे लोगों का बुनियादी दायित्व है। दुर्भाग्य से भारत की गिनती उन देशों में होती है जहां सरकारी स्वास्थ्य ढांचा दयनीय दशा में है और निजी क्षेत्र के स्वास्थ्य ढांचे का खर्च आम लोगों के बूते के बाहर है। 
    इसी कारण संयुक्त राष्ट्र का मानव विकास सूचकांक यह दर्शाता है कि स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में भारत का स्थान कई अफ्रीकी देशों से भी पीछे है। इसमें कोई दोराय नहीं कि आजादी के बाद जिस स्वास्थ्य ढांचे का निर्माण किया गया वह अब और अधिक अपर्याप्त नजर आने लगा है। 
    बीते चार दशकों में मेडिकल साइंस ने बहुत तरक्की की है। नई तकनीक, अधिक असरकारी दवाओं और आधुनिक उपकरणों के चलते चिकित्सक उन अनेक बीमारियों पर काबू पाने में समर्थ हैैं जो कुछ समय पहले तक लाइलाज मानी जाती थीं। इन बीमारियों का उपचार इसलिए आसान हुआ है, क्योंकि रोगों की सही पहचान के लिए तमाम मशीनें इस्तेमाल होने लगी है। इसी के साथ नई-नई दवाओं की खोज के चलते यह माना जाने लगा है कि चिकित्सा जगत एड्स सरीखे रोगों का भी निदान खोजने में समर्थ होगा। विडंबना यह है कि जैसे-जैसे बीमारियों के निदान में उपकरणों और प्रभावी दवाओं की भूमिका बढ़ रही है वैसे-वैसे इलाज महंगा भी होता जा रहा है।


Public hospital in dilapidated condition & Private out of reach


हर कोई अपना अथवा अपने परिजनों का बेहतर इलाज कराना चाहता है, लेकिन जहां सरकारी अस्पतालों की अव्यवस्था और उचित इलाज के अभाव की शिकायतें उन्हें हतोत्साहित करती हैं वहीं निजी अस्पतालों का महंगा इलाज उन्हें डराता है। कई निजी अस्पतालों का इलाज तो इतना महंगा है कि वहां चंद दिनों का उपचार लोगों की कमर तोड़ देता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि डॉक्टर बेहतर इलाज के जरिये मरीज को बचा लेने की उम्मीद जगाते है। इस उम्मीद में लोग अपने परिजन को बचाने के लिए कुछ भी करने और यहां तक कि जेवर-जमीन बेचने तक को तैयार हो जाते हैं। एक ओर आम लोग ऐसा करने को विवश हैं वहीं दूसरी ओर निजी अस्पताल लापरवाही और लूट-खसोट का परिचय देते दिख रहे हैं। 
Not just high expenditure but utter neglect
बीते दिनों दिल्ली के एक निजी अस्पताल ने नवजात जु़ड़वां बच्चों को मृत करार दिया, जबकि उनमें से एक जीवित था। इसके पहले गुरुग्राम के एक निजी अस्पताल ने डेंगू के इलाज के नाम पर 16 लाख का बिल बना दिया और मरीज को बचा भी नहीं सका। इस अस्पताल ने दवाओं और मेडिकल सामग्री के आठ-दस गुना दाम वसूले और फिर भी इस आधार पर खुद को सही ठहरा रहा कि उसने तो एमआरपी के हिसाब से ही पैसे लिए। निजी अस्पतालों का ऐसा रवैया मेडिकल पेशे के साथ-साथ मानवता के भी खिलाफ है।


Hospital not life saver but becoming Business houses

हर कोई यह जानता है कि जीवन-मौत मनुष्य के हाथ नहीं है, फिर भी वे डॉक्टरों पर भरोसा करते हैं और उन्हें भगवान समान मानते है, लेकिन आज इन्हीं डॉक्टरों का एक वर्ग पैसा कमाने को सबसे ज्यादा महत्व देता दिख रहा है। एक बड़ी संख्या में निजी अस्पताल मनमाने पैसे वसूल करने के लिए कुख्यात हो रहे हैं। चूंकि सरकारी स्वास्थ्य ढांचा चरमरा रहा है इसलिए निजी अस्पताल की सेवाएं लेना मजबूरी बन गई है। यह सही है कि निजी अस्पताल आधुनिक उपकरणों के साथ बेहतर डॉक्टरों और सुविधाओं से लैस है, लेकिन उनमें सेवाभाव की कमी भी देखने में आ रही है। ऐसा लगता है कि वे कम समय में अधिक मुनाफा कमाने की होड़ में शामिल हो गए हैैं। समझना कठिन है कि वह शपथ निष्प्रभावी क्यों हो रही है जो डॉक्टर लेते है? नि:संदेह निजी अस्पताल चलाने वाले डॉक्टरों से यह अपेक्षा नहीं की जाती और न ही करनी चाहिए कि वे सेवाभाव के आगे यह भूल जाएं कि उन्हें मुनाफा हो रहा है या नहीं, लेकिन कम से कम यह तो नहीं होना चाहिए कि पांच रुपये वाली डिस्पोजल सीरिंज के दो सौ रुपये वसूल किए जाएं। निजी अस्पतालों को लेकर ऐसी शिकायतें बढ़ रही हैैं कि वे बिल बढ़ाने के लिए अनावश्यक जांच कराते हैैं और साधारण बीमारी को भी गंभीर बताते हैैं। अब तो ऐसी शिकायतें भी आने लगी हैैं कि मरीज की मौत के बाद भी उसे वेंटीलेटर में रखकर जीवित बताया जाता है। महंगी दवाएं भी एक बड़ी समस्या हैैं और इसकी जड़ में दवा कंपनियां भी हैैं। वे डॉक्टरों को महंगे उपहार देकर अपनी महंगी दवाएं उपयोग में लाने के लिए कहते हैं। इसी कारण दो रुपये की लागत वाली दवा कई बार मेडिकल स्टोर में बीस रुपये में मिलती है। एमआरपी के चलते यह गोरखधंधा बेरोक-टोक चल रहा है।


Need effective regulation


ऐसा नहीं है कि विश्व के सभी देशों में एक जैसी स्थिति है। कुछ देशों ने नियम-कानूनों और प्रभावी नियमन के जरिये स्वास्थ्य ढांचे को आम आदमी के वहन कर सकने लायक बनाया है, लेकिन ऐसे देश गिनती लायक ही है। बेहतर स्वास्थ्य ढांचे के निर्माण के लिहाज से भारत की स्थिति गई-बीती है। हमारे यहां स्वास्थ्य केंद्र एवं राज्य, दोनों का विषय है। केंद्र सरकार नीतियां बनाने का काम करने के साथ चंद अस्पतालों का निर्माण करने तक सीमित है। स्वास्थ्य ढांचे में सुधार के मामले में ज्यादा जिम्मेदारी राज्यों की है। वे अपने दायित्वों के निर्वहन के प्रति सजग नहीं। स्थिति इतनी खराब है कि जरूरत भर के डॉक्टर भी तैयार नहीं हो पा रहे और जो तैयार भी होते है वे छोटे सरकारी अस्पतालों में सेवाएं देने के लिए सहमत नहीं होते। एक अन्य समस्या मेडिकल शिक्षा तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार है। एमबीबीएस करने वाले तमाम छात्र पीजी की पढ़ाई के लिए रिश्वत देने को विवश है।
यह अच्छी बात है कि सरकार ने मेडिकल शिक्षा और साथ ही स्वास्थ्य क्षेत्र की खराब हालत को समझते हुए मेडिकल काउंसिल अॉफ इंडिया यानी एमसीआइ को खत्म करने और उसके स्थान पर नेशनल मेडिकल कमीशन बनाने का फैसला किया। एमसीआइ एक भ्रष्ट संस्था के तौर पर उभर आई थी। उस पर पैसे लेकर मेडिकल कॉलेजों को मान्यता देने और साथ ही अपात्र मेडिकल कॉलेजों को हरी झंडी देने के गंभीर आरोप लगे। प्रस्तावित नेशनल मेडिकल कमीशन पर एक महती जिम्मेदारी है। उसे सरकार के साथ-साथ देशवासियों की उम्मीदों पर भी खरा उतरना होगा। अब जब मोदी सरकार एमसीआइ की जगह नेशनल मेडिकल कमीशन बनाने जा रही है तब उसे यह भी ध्यान रखना होगा कि स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाने की भी सख्त जरूरत है। यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि सरकार जीडीपी का 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करने की अपनी घोषणा पर अमल करे। इसी के साथ राज्य सरकारें भी यह समझें कि मेडिकल शिक्षा और स्वास्थ्य ढांचे को सुधारने के मामले में उन्हें भी वैसी ही प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने की जरूरत है जैसी केंद्र सरकार प्रदर्शित कर रही है।

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