हिंदी राजभाषा दिवस

किसी भी नए काम के शुरुआत के लिए अमृत काल सबसे सही समय माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि अमृत काल वही समय है जब बड़ी से बड़ी उपलब्धि को भी हासिल किया जा सकता है आज हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। क्या हमने हिंदी के क्षेत्र में भी इतना कुछ प्राप्त कर लिया है कि हम महोत्सव मना सकें ? क्या हम उस अमृत काल में पहुँच गए हैं जहां से हिन्दी उत्थान के लिए उठाए जा रहे प्रत्येक कदम आवश्यक रूप से शुभ और सफल ही होंगे ?

आज़ादी पूर्व: हिंदी का राष्ट्रीय आन्दोलन में योगदान

आज़ादी के आंदोलन में सभी भारतीयों को एक सूत्र में बाँधने वाली तमाम कारकों में हिंदुस्तानी भाषा एक प्रमुख कारक थी तमाम अहिंदी क्षेत्र के जन नायकों ने हिंदी को राष्ट्रीय एकता के लिए ज़रूरी बताया महात्मा गांधी , लोकमान्य तिलक , राजागोपाल चारी , काका कालेलकर , केशव चंद्र सेन आदि प्रमुख नाम है काका कालेलकर के शब्दों में , ‘यदि भारत में प्रजा का राज चलाना है , तो वहाँ की जनता की भाषा में चलाना होगा लेकिन आज़ादी के बाद की जनता की भाषा की स्थिति किसी से छुपी नहीं है।

आज़ादी के बाद हिन्दी

अपने ही घर में दोयम दर्ज़े के नागरिक के तौर पर रहने के लिए अभिशप्त हिन्दी की संवैधानिक स्थिति ऐसी नहीं है। भारत के संविधान निर्माताओं ने इसे राजभाषा का पद दिया है ( अनुच्छेद 343 (1) ) इसका अर्थ है है कि केंद्र अपने सारे कार्यकाज और राज्यों से शासकीय संचार हिन्दी भाषा में ही करेगा। साथ में एक शर्त थी कि अंग्रेजी का प्रयोग आगे के 15 वर्षों तक बना रहेगा। अंग्रेजी के प्रयोग को कम करने और उसी के समान्तर हिन्दी का प्रसार हो ; इसके लिए भारत के संविधान भाग 17 के अध्याय 4 के अनुच्छेद 351 में हिंदी भाषा के विकास के लिए दिया गया विशेष निर्देश इस प्रकार है :- "संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों के का माध्यम बन सकें तथा उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी के और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात् करते हुए तथा जहाँ आवश्यक या वाँछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से तथा गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी सम्पदा में वृद्धि करे। "

अंग्रेजी हुकूमत के ख़ात्मे के बाद भी नौकरशाही और शासन अभिजात्य और आधिपत्यवाद के संस्कारों से मुक्त नहीं हुआ। अंग्रेजी के प्रयोग को कम करने की ज़िम्मेदारी जिन नौकरशाहों को दी गयी , वो कर्तव्यच्युत रहे। इन पंद्रह सालों में हिन्दी के प्रयोग में कुछ ख़ास वृद्धि नहीं हुई। अंग्रेज़ी एक भाषा की जगह श्रेष्ठता की पहचान बनायी गयी। सदियों की गुलामी ने हमारे मेधा शक्ति को ऐसा आच्छादित किया कि हमने अंग्रेजी को मालिक और अपनी हिन्दी को नौकर समझ लिया। इसका परिणाम ये हुआ कि जब अंग्रेजी को पूरी तरीके से अपदस्थ करने का समय आया तो उपनिवेशवादी अंग्रेजी तंत्र ने संकीर्ण क्षेत्रीय शक्तियों से हाथ मिलाकर हिन्दी के खिलाफ एक ऐसा माहौल बनाया कि संसद को राजभाषा अधिनियम 1963 पास करना पड़ा जिसमें प्रावधान था कि अंग्रेजी का प्रयोग तब तक बना रहेगा जब तक संसद कोई और कानून नहीं बना देती ! अब हिन्दी विरोधियों को संसद के इस कानून का सहारा मिल गया जिसे प्रयोग करके हिन्दी के विरुद्ध और माहौल बनाया जाने लगा। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में जिन राज्यों यथा तमिलनाडु , आंध्र प्रदेश , बंगाल , महाराष्ट्र आदि से हिन्दी को सबसे ज़्यादा समर्थन दिया और इसे देश को जोड़ने वाली भाषा कहा , उन्हीं राज्यों में हिन्दी के बहिष्कार के लिए आंदोलन होने लगा। इसका कारण राजनीतिक था।

राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय ने देश को तीन समूहों में वर्गीकृत किया है : , और क्षेत्र। ये राज्य समूह हिन्दी के प्रयोग की मात्रा के आधार तय किये गए हैं। राज्यों के सरकारी कार्यालयों और मंत्रालयों में अधिकतर कार्य हिन्दी में किये जाते हैं। और क्षेत्रों में प्रयोग क्रमशः कम से कमतर है। सबसे बड़ी चुनौती समूह के क्षेत्रों में है जहाँ हिन्दी का प्रयोग न्यूनतम है। इस श्रेणी में तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश (तेलंगाना समेत) आते हैं इन राज्यों के नेताओं का आरोप है कि हिन्दी हमारी मातृ भाषाओं को ख़त्म कर सकती है। यह अपने मूल में साम्राज्यवादी है।

हिन्दी कोई बाहरी भाषा नहीं कि उसे अपने ही देश में उपनिवेश स्थापित करना पड़े। यह तो देश के बहुलांश द्वारा बोले जाने वाली भाषा है। हिन्दी का अन्य बोलियों से बहनों का नाता है , माँ और बेटी का नहीं ; और सभी बहनों की माँ है संस्कृत।

हिन्दी के प्रयोग का यह अर्थ बिल्कुल नहीं कि मातृभाषा का प्रयोग नहीं करना है बल्कि कार्यालयी सम्पर्क भाषा के रूप में आज जिस अंग्रेजी का प्रयोग हो रहा है उसकी जगह राजभाषा हिन्दी का प्रयोग करना है। साफ है कि हिन्दी अपने मूल में साम्राज्यवादी बिल्कुल भी नहीं है। भाषा सिर्फ़ संचार का माध्यम ही नहीं अपितु वह संस्कृति की वाहक भी होती है। विदेशी भाषा अंग्रेजी ने जिस तरीके से आधुनिकीकरण के नाम पर पश्चिमीकरण कर डाला , उससे भारतीय संस्कृति दूषित होने लगी। संस्कृति के इस आदान प्रदान में लाभ कम हानि अधिक हुई

माना जाता है मनुष्य भाषा में जीता है। हम जिस समय में जी रहे हैं वह विश्व बाजारवाद का समय है, जिसमें समय मनुष्य का होकर मशीन का है, उपकरण का है और नई-नई अवधारणाओं का है। हम सूचना के विस्फोट के ऐसे समय में हैं जहां प्रचार के बड़े माध्यमों का भाषा पर दबदबा है, जिसके चलते आज वह जड़विहीन और तात्कालिक होती जा रही है- बोलो और भूल जाओ की भाषा में है। इधर, भाषा अब कलात्मकता के साथ बनाई जाती है और विनिर्मित होती है। बाजार की सुविधा के लिए गढ़े जाने वाले शब्द जन्म ले रहे हैं।


टेलीविजन पर उपभोक्ता सामग्री के विज्ञापनों में इस विरूपीकरण को देख रहे हैं, जिसमें अंग्रेजी और हिंदी की खिचड़ी से निर्मित अशुद्ध भाषा सम्पन्न परिवारों की जीवन शैली और मूल्यों को प्रदर्शित करती है, जिनमें से अधिकांश का जीवन स्वार्थ बर्बरता स्पर्धा और आत्मकेंद्रिता पर टिका होता है।


दरअसल, भाषा की इस अशुद्धि कहें या खिचड़ी में वंचित जनता की मार्मिक स्थितियों की छवि नहीं दिखाई पड़ती उनके जीवन के तनाव को नहीं देखा जा सकता। भाषा की ऐसी गति बुद्धिजीवियों को कैसे शांत रख सकती है जबकि सृजन की हर साहित्यिक विधा भाषा की कसौटी पर ही कसी जाती है, जिससे समाज का दिशा-निर्देशन होता है। निराशा तब ज्यादा महसूस होती है जब भाषा को सभ्यता का प्रतिनिधि और आदर्श बनाने वाले लेखक, पत्रकार, साहित्यकार निः शब्द मूक बन जाते हैं।


 

मीडिया स्वयं हॉट न्यूज ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर टीआरपी बढ़ाने की कोशिश में भाषा के इस पतन को लेकर आलोचना तक नहीं करता। आखिर क्यों? अब तक सभ्य भाषा के प्रयोग पर कोई सख्त बयान जारी नहीं किया गया। सत्ता पक्ष की राजनीति करने वालों को सोचना होगा कि लोकतंत्र की मर्यादा और भाषा की रक्षा कैसे की जाए।


समाज और संस्कृति से भाषा की हालत का गहरा संबंध है। हम किसी भाषा को किस दृष्टि से देखते हैं और उसका कैसा उपयोग करना चाहते हैं, यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि हमारी सांस्कृतिक सोच क्या है, समाज के बारे में हमारी दृष्टि क्या है और हमारी भूमिका क्या है।


अभी तक दुनिया के जितने देश सुपरपावर हैं, वे अपनी राष्ट्रीय भाषा में बड़े काम करते देखे जा सकते हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन और जापान जैसे सुपर पावर अपनी भाषा अंग्रेजी, फ्रेंच या जापानी में ही चिंतन, खोज और काम करते हुए समृद्ध हुए हैं। सिर्फ भारत में कल्पना की जाती है कि यह देश भारतीय भाषाओं और खास कर हिंदी को किनारे रख कर सुपर पावर बनेगा। भारत में औपनिवेशिक हैंगओवर छाया हुआ है। इसकी एक वजह सांस्कृतिक आत्महीनता भी है।


इधर, दूसरी कसर टेलीविजन पूरी कर देता है जिसमें ऐसी लोकप्रियतावादी चीजें अधिक दिखाता है जिसके विज्ञापन से बाजार विकसित हो सके फिर उसकी भाषा चाहे जो भी हो। केवल माल बेचने और गांव-कस्बों में नए बाज़ार बनाने के लिए हिन्दी का जिस सुविधा के साथ प्रयोग हो रहा है, वह एक तदर्थ और व्यावहारिक उद्देश्य के लिए है। किसी व्यापार आदर्श, राष्ट्र निर्माण या मूलगामी परिवर्तन के लिए नहीं।


कारोबार में भी किसी उच्च प्रशासनिक बैठक का वार्तालाप हिन्दी में नहीं होता, विज्ञापन एजेंसियों में सारे विज्ञापन पहले अंग्रेजी में बनते हैं, बाद में जैसे-तैसे उनका कामचलाऊ हिन्दी में अनुवाद कर दिया जाता है। भाषा की यह दुर्दशा केवल बाजार में नहीं राजनीति में भी है, जबकि लोकतंत्र में शपथ की भाषा अनुशासन है।

भाषा को मजबूत बनाने में लिपि का महत्वपूर्ण योगदान होता है। आज हिंदी का अपना बाजार है। यह बाजार सिनेमा, विज्ञापन और प्रौद्योगिकी का है। किसी भी भाषा का बाजार पर अपनी मजबूत पकड़ बनाना सरल नहीं होता है। भाषा का आर्थिक, सामाजिक भाषिक व्यवहार ही उसे बाजार की भाषा बनाता है। आज हिंदी वैश्विक बाजार की भाषा बन कर उभर रही है। मगर यह भाषाहिंग्लिशहै। बाजार की इस चकाचौंध में हिंदी का व्यवहारिक पक्ष तो मजबूत हुआ है लेकिन उसका भाषिक पक्ष कमजोर हुआ है। आज हिंदी को बोलने और समझने वाले लोगों की सर्वाधिक संख्या है। यही कारण भी है कि विविधताओं से भरे हमारे देश में जहां हर चार कोस में बोली-भाषा का स्वरूप बदल जाता है, वहां बहुत सी भाषा और बोलियों के मध्यहिंदीने अपना स्थान बनाया है। वह संप्रेषण और रोजगार की भाषा बनी है। हिंदी की इस मजबूत स्थिति के साथ उसका कमजोर पक्ष भी उभरा है। यह पक्ष हिंदी की लिपि का है।


आज जब हम बाजार की चकाचौंध में चमकती हिंदी का गुणगान करते हैं तो उसके व्यावहारिक पक्ष को तो देखते हैं लेकिन भाषिक पक्ष को अनदेखा कर देते हैं। बाजार, सिनेमा और विज्ञापन में हिंदी और उसकी लिपि के प्रति भेदभाव की मानसिकता को नहीं देख पा रहे हैं। हिंदी की देवनागरी लिपि के प्रयोग की अपेक्षा रोमन लिपि में लिखने का चलन बड़ा है। यह चलन हिंदी के भाषिक पक्ष को कमजोर बनाता है।


अक्सर प्रश्न किया जाता है किहिंदीचूँकि संस्कृत के अधिक निकट है इस कारण भाषिक व्यवहार में कठिन शब्दों के प्रयोग के कारण युवाओं को उसे सीखने में समस्या रही है। दूसरा सोशल मीडिया से लेकर कंप्यूटर तक की भाषा अंग्रेजी है। इसका कारण भाषा की संप्रेषणीयता है। वहीं अंग्रेजी के प्रति इस तरह की धारणा सुनने को नहीं मिलती है। चूँकि वह भाषा हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में अधिक सक्षम है तो हम हिंदी भाषी होने के बावजूद अन्य भाषा को सीखकर उस पर पूर्णत: अधिकार प्राप्त कर लेते हैं और वह हमारे विद्यालयी पाठ्यक्रम में अनिवार्य भाषा के रूप में पढ़ी-पढाई जा रही है।


वहीं हमहिंदीके प्रति संस्कृत से उसकी निकटता के कारण कठिनाई का आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहे हैं। भाषा कोई भी कठिन सरल नहीं होती है। यह हमारी मानसिकता है जिसने इसे दो खेमों में विभाजित किया है। इसी ने अंग्रेजी को उपयोगी सरल बताया और हिंदी को दुरुहता की श्रेणी में डाल दिया। देवनागरी लिपि की ही बात करें तो यह जितनी सरल और वैज्ञानिक सम्मत है, वह वैज्ञानिकता अन्य भाषाओं की लिपियों में नहीं मिलती है। हिंदी की देवनागरी लिपि में एक ध्वनि के लिए एक ही चिन्ह का प्रयोग होता है जो रोमन लिपि में नहीं है।


यहां एक ही ध्वनिके लिएसी,‘के,‘क्यूका प्रयोग होता है। इस कारण अंग्रेजी भाषा की रोमन लिपि को सीखते समय उसके उच्चारण क्रम में एक ही वर्ण के प्रयोग के साथ शब्दों के अलग-अलग उच्चारण क्रम को भी सीखना पड़ता है। लेकिन अंग्रेजी भाषा के प्रति प्रेम सीखने की ललक उस लिपि के प्रत्येक पक्ष को सीखने में सहायक बनता है।


यहाँ संदर्भ किसी भाषा को श्रेष्ठ कमत्तर बताना नहीं है बल्कि हिंदी भाषा के प्रति संकुचित दृष्टि को जानना है। आज हिंदी की देवनागरी लिपि की उपेक्षा हो रही है और रोमन लिपि में हिंदी लिखने का चलन बढ़ा है। हिंदी सिनेमा, टी.वी सीरियल्स से लेकर विज्ञापन तक में काम करने वाले लोगो में यदि सर्वे करवाया जाए तो बहुत कम लोग मिलेंगे जो पढ़ते लिखते समय हिंदी की देवनागरी लिपि का प्रयोग करते हैं।



भाषा के विकास में केवल उसका व्यवहारिक पक्ष ही कारगर नहीं होता है बल्कि उसका भाषिक प्रयोगात्मक पक्ष भी अनिवार्य होता है। आप एक को लेकर दूसरे को छोड़ नहीं सकते हैं। हिंदी के भाषिक प्रयोग के लिए देवनागरी लिपि की अपेक्षा रोमन लिपि के बढ़ते चलन ने एक वर्ग को भारतीय भाषाओं के साहित्य से दूर कर दिया है।

आज भारतीय साहित्य हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी भाषा में अधिक पढ़ा जा रहा है। कुछ भारतीय दिमाग में अंग्रेजी सोच रखने वाले लोग हिंदी को देवनागरी लिपि में लिखने की अपेक्षा रोमन लिपि में लिखने की वक़ालत करते रहे हैं। लिपि जो भाषा की प्राणतत्व है जो भाषा को स्थायीत्व संग्रहणीय बनाती है, यह कैसे हो सकता है कि आप उसके एक पक्ष को अपनाए और दूसरे को छोड़ दे। आज हिंदी भाषा की मूल समस्या उसके व्यवहारिक प्रयोग की नहीं है। बावजूद इसके हिंदी की सबसे बड़ी समस्या उसके लिपिगत प्रयोग से है। किसी भाषा की मूल लिपि के प्रयोग की अपेक्षा सरलता के क्रम में रोमन लिपि का बढ़ता प्रचलन किसी भी भाषा के लिए हितकर नहीं है।

भाषा ज्ञान के रास्ते खोलती है तो वहीं लिपि उस ज्ञान को स्थायी संग्रहणीय बनाती है। आज के दौर में कठिनता से सरलता के प्रवाह में देवनागरी लिपि का स्थान रोमन लिपि ले रही है। सरलता के इस प्रवाह में हम भाषा के मूल व्यवहार उसकी संरचना को अनदेखा कर देते हैं। हमारा समाज बहुभाषी है। हमारी अपनी ही बहुत सी बोली, भाषाएँ और लिपियां है। इसके बावजूद हमारे देश में देवनागरी लिपि की अपेक्षा रोमन लिपि का प्रयोग सर्वाधिक हो रहा है। यहाँ तक की हिंदी भाषा का भाषिक व्यवहार भी देवनागरी लिपि की अपेक्षा रोमन लिपि में किये जाने पर ज़ोर दिया जाने लगा है।

एक ओर हम भारतीय भाषाओं, बोलियों लिपियों को पुन: जीवंत बनाने उनके शैक्षिक साहित्यिक योगदान को मजबूत बनाने का प्रयास कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ हमारी राजभाषा राष्ट्रभाषा हिंदी को देवनागरी लिपि में लिखे जाने की अपेक्षा रोमन लिपि में लिखे जाने की बहस चल रही है। ऐसे में हमारी बोलियाँ भाषाएं अपना अस्तित्व ही खो देगी क्योंकि वह लिपि ही है जो किसी भाषा को स्थायी, सजीव संग्रहणीय बनाती है।

रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था, ‘भारतीय भाषाएं नदियां हैं और हिंदी महानदी।उन्होंने यह इसलिए कहा था, क्योंकि उन्हें हिंदी के महत्व का बोध था। हिंदी स्वतंत्रता संग्राम के समय स्वाधीनता सेनानियों के बीच संपर्क का प्रमुख माध्यम रही। हिंदी विविधता में एकता का सूत्र है और वह देश के बड़े हिस्से में अधिकांश लोगों द्वारा सबसे अधिक बोली-समझी जाती है। हिंदी देश के सामाजिक, राजनीतिक, सांप्रदायिक एवं भाषाई समन्वय और सौहार्द का प्रतीक है।

भारतीय भाषाओं और हिंदी के संबंध की दृष्टि से संविधान का अनुच्छेद 351 अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिसमें अपेक्षा की गई है, ‘संघ हिंदी को इस प्रकार विकसित करेगा कि वह देश की मिलीजुली संस्कृति को अभिव्यक्त कर सके। संघ से यह भी अपेक्षा है कि जहां तक संभव हो, भारतीय भाषाओं के शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियों से हिंदी को समृद्ध किया जाए।

हिंदी विभिन्न भाषाओं के प्रचलित शब्दों को अपने में समाहित करके सही मायनों में भारत की संपर्क भाषा होने की भूमिका निभा रही है। हिंदी ने तेलुगू से कुचीपुड़ी और मोरम शब्दों को ग्रहण किया तो तमिल से पिल्ला और पंडाल जैसे शब्द अपनाए। इसी तरह चाल (छोटा कमरा) मलयालम का शब्द है। छाता बांग्ला का शब्द और हड़ताल गुजराती का है। ये शब्द हिंदी में खूब प्रचलित हैं। हिंदी में श्री, श्रीमती, राष्ट्रपति, मुद्रास्फीति जैसे शब्द मूलतः मराठीभाषी बाबूराव विष्णु पराड़कर के चलाए हुए हैं।

कोई भाषा तभी नीरभरी नदी बनती है जब वह दूसरी भाषाओं से स्रोत ग्रहण करे। इससे वह समृद्ध भी बनती है। हिंदी समेत कई भाषाओं में एक मुहावरा है-तू डाल-डाल, मैं पात-पात। तेलुगू में भी यह मुहावरा है। उसका हिंदी अनुवाद होगा-तू मेघ-मेघ, मैं तारा-तारा। ऐसे मुहावरों के चलन से हिंदी और सशक्त होगी। हिंदी को पूरे देश में राजभाषा के रूप में पूरी तरह स्वीकार्यता तभी मिलेगी, जब हम सभी स्थानीय भाषाओं को भी सम्मान देंगे।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भारतीय भाषाओं में शिक्षा पर बल दिया गया है। मातृभाषा की उन्नति के बिना किसी भी समाज की उन्नति संभव नहीं है। भाषा राजकीय उत्सवों से नहीं, बल्कि जन सरोकारों और लोक परंपराओं से समृद्ध होती है। हिंदी की सबसे बड़ी शक्ति इसकी वैज्ञानिकता, मौलिकता, सरलता और स्वीकार्यता है। हिंदी की विशेषता है कि इसमें जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है।

हिंदी सर्वसुलभ और सहज ग्रहणीय भाषा है। उसका स्वरूप समावेशी है और लिपि देवनागरी विश्व की सबसे पुरानी एवं वैज्ञानिक लिपियों में से एक है। हिंदी आधुनिक भी है और पुरातन भी। हिंदी के ये गुण ही उसे मात्र एक भाषा के स्तर से ऊपर एक संस्कृति होने का सम्मान दिलाते हैं। राजभाषा हिंदी के माध्यम से देश की जनता की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक अपेक्षाओं को पूरा करने वाली योजनाओं को आखिरी सिरे तक पहुंचाना सरकारी तंत्र का प्रमुख कर्तव्य है और उसकी सफलता की कसौटी भी।

यदि हम चाहते हैं कि हमारा लोकतंत्र निरंतर प्रगतिशील रहे और अधिक सशक्त बने तो हमें संघ के कामकाज में हिंदी और राज्यों के कामकाज में उनकी प्रांतीय भाषाओं का प्रयोग करना होगा। हिंदी को उसके वर्तमान स्वरूप तक पहुंचाने में सभी प्रदेशों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत की सभी भाषाएं समृद्ध हैं। उनका अपना साहित्य, शब्दावली, अभिव्यक्ति एवं मुहावरे हैं। इन सभी भाषाओं में भारतीयता की एक आंतरिक शक्ति भी है।

हिंदी की सेवा अनेक हिंदीतरभाषियों ने भी की है। केरल के प्रथम हिंदी प्रचारक मलयालम भाषी एमके दामोदरन उण्णि थे। मलयालम भाषी जी. गोपीनाथन, दंद्रहासन, एन चंद्रशेखरन नायर, एनई विश्वनाथ अय्यर और केसी अजय कुमार की हिंदी सेवा को हम भूल नहीं सकते। इसी कड़ी में सुब्रह्मण्य भारती, सुमति अय्यर और पी. जयरामन जैसे तमिलभाषियों, बीवी कारंत और नारायण दत्त जैसे कन्नड़भाषियों, मोटूरि सत्यनारायण, भीमसेन निर्मल, बाल शौरि रेड्डी और यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद जैसे तेलुगुभाषियों ने भी हिंदी की जो सेवा की उसे याद रखना चाहिए।

अनेक मराठी भाषियों जैसे सखाराम गणेश देउस्कर, लक्ष्मण नारायण गर्दे, माधव राव सप्रे, बाबूराव विष्णु पराड़कर, प्रभाकर माचवे, चंद्रकांत वांडिवडेकर, राहुल बारपुते ने हिंदी की अनन्य सेवा की। राजा राममोहन राय, श्याम सुंदर सेन, अमृतलाल चक्रवर्ती, चिंतामणि घोष, क्षितिंद्र मोहन मित्र, शारदा चरण मित्र, रामानंद चट्टोपाध्याय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, नलिनी मोहन सान्याल, सुनीति कुमार और रवींद्रनाथ टैगोर जैसे बांग्लाभाषियों ने भी हिंदी की खूब सेवा की। टैगोर ने तो विश्वभारती में हिंदी भवन की स्थापना कर हजारी प्रसाद द्विवेदी को हिंदी शिक्षक नियुक्त किया। महात्मा गांधी ने हिंदी को भारतीय चिंतन-धारा का स्वाभाविक विकास क्रम माना था। हिंदी भाषा का प्रश्न उनके लिए स्वराज्य का प्रश्न था। हिंदी का महत्व हमारे संविधान निर्माताओं ने प्रारंभ में ही स्वीकार किया और उसकी सर्वग्राह्यता को ध्यान में रखते हुए ही संविधान सभा ने 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को संघ की राजभाषा के रूप में अंगीकार किया।

हिंदी ने राष्ट्रीय एकता का मार्ग तो प्रशस्त किया ही, उसे यह भी बोध रहा है कि भारत का विकास और राष्ट्रीय एकता की रक्षा प्रादेशिक भाषाओं के पूर्ण विकास से ही संभव है। सहयोग और सहकार के लक्ष्य की प्राप्ति हिंदी के माध्यम से ही संभव होती रही है। विविधता और बहुभाषिकता भारत की विशेषता है। विभिन्न भाषाओं के साथ हिंदी का सहज संबंध विकसित हुआ है। हिंदी और भारतीय भाषाओं का पारस्परिक आदान-प्रदान संगठित एवं योजनाबद्ध तरीके से बढ़ाने की आवश्यकता है।

हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच पारस्परिक साझेदारी विकसित होने पर देशवासियों के बीच तालमेल बेहतर होगा। हमें हिंदी दिवस के अवसर पर हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच सुगम संबंध की समझ का विकास करने का संकल्प लेना होगा। इसके साथ ही हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच अन्योन्याश्रित संबंध का संधान करना होगा। हिंदीतर भाषाओं के साथ हिंदी की भाषिक और अर्थपरक समझ का विकास होने पर अखिल भारतीय बोध का विस्तार होगा।

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