प्रसंग:
- देश में हर साल लगभग 90 लाख लोग पलायन करते हैं। इस प्रकार देखें तो देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अवसरों के अभाव में विस्थापन को विवश होता है। अवसरों का यह अभाव रोजगार के विकल्पों-मौकों की कमी और क्षेत्रीय स्थिति जैसे पहलुओं से उत्पन्न होता है।
- इतने बड़े पैमाने पर पलायन अवसरों में असमानता की पुष्टि करता है। किसी एक स्थान विशेष पर आर्थिक गतिविधियों का संकेंद्रण अक्सर सामाजिक अशांति एवं आक्रोश का कारण बनता है।
लोकलुभावनवाद:
- भारत के संविधान की उद्देशिका में ‘प्रतिष्ठा एवं अवसर की समानता’ का उद्घोष किया गया है। एक के बाद एक सरकारों ने इस असमानता को दूर करने की दिशा में कदम अवश्य उठाए, लेकिन अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हो पाए।
- लोकलुभावनवाद को लेकर इन दिनों जबरदस्त होड़ मची हुई है। इसी कारण बीते दिनों कर्नाटक के उप-मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार को कहना पड़ा कि मुफ्तखोरी वाली योजनाओं के चुनावी वादों को पूरा करने के लिए इस साल विधायकों के पास उनके निर्वाचन क्षेत्रों में विकास गतिविधियों के लिए धनराशि शेष नहीं बचेगी।
सांगठनिक ढांचा:
- भारत में सरकारी योजनाओं एवं कार्यक्रमों को धरातल पर उतारने का मुख्य दायित्व देश की नौकरशाही के पास है। अफसोस की बात है कि उसका प्रदर्शन खराब रहा है। इसकी बड़ी वजह संस्थानों का सांगठनिक ढांचा, कार्य संचालन का ढर्रा और जवाबदेही की कमी है। भारत ने नौकरशाही का सांगठनिक ढांचा अपने औपनिवेशिक शासकों से विरासत में लिया। उसके लिए स्टील फ्रेम यानी इस्पाती ढांचे की उपमा भी गढ़ी गई। उससे अपेक्षा की गई कि यह ढांचा न केवल कानून एवं व्यवस्था को बनाए रखेगा, बल्कि सरकारी खजाने के लिए राजस्व भी जुटाएगा। स्वतंत्र भारत में प्रशासनिक ढांचा इस प्रकार कायम रहा कि उसका नाम तक नहीं बदला गया और उसे डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर ही कहा जाता रहा।
- राजनीतिक स्वतंत्रता ने राष्ट्र-राज्य को जनता की, जनता द्वारा और जनता के लिए सरकार में बदल दिया। उत्कृष्ट संविधान ने विधायिका को कानून बनाने, कार्यपालिका को उन्हें लागू करने और न्यायपालिका को एक समतामूलक समाज के निर्माण का दायित्व सौंपा। यह सब तो हुआ, लेकिन प्रशासनिक मशीनरी को आवश्यक रूप से पुनर्गठित नहीं किया गया। जबकि स्वतंत्र भारत में जनकल्याण की दिशा पूर्ववर्ती शासन से बिल्कुल अलग थी। इसके बावजूद समानता और न्याय वितरण के अग्रदूत बनने के बजाय सरकारें ‘माई बाप की सरकार’ और अधिकारी ‘हुजूर’ ही बने रहे।
वास्तविक उपलब्धि:
- अवसरों में असमानता के अतिरिक्त शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आय और जीवन की गुणवत्ता के स्तर पर विसंगतियां अपूर्ण वादों को ही दर्शाती हैं।
- केवल प्रति व्यक्ति जीडीपी ही सफलता का पैमाना नहीं होना चाहिए। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिगलिट्ज का मानना है, ‘जीडीपी में स्वास्थ्य, शिक्षा, अवसरों की समानता, पर्यावरण की स्थिति और जीवन की गुणवत्ता से जुड़े अन्य संकेतक प्रतिबिंबित नहीं होते’।
- शिक्षित होने से आशय मात्र साक्षर होने से नहीं है। प्रत्येक देशवासी को गुणवत्तापरक नागरिक सुविधाएं, आवास, स्वास्थ्य सेवाएं और एक सार्थक आर्थिक सक्रियता के लिए अवसरों की समानता भी मिलनी चाहिये। जीवन से जुड़ी अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लोगों को किसी सरकार या प्रशासनिक अमले के आगे हाथ न फैलाना पड़े। इसके बजाय लोग उनके साथ बैठकर राह में आने वाली बाधाओं को दूर करने और बेहतरी की दिशा में आगे बढ़ने पर मंत्रणा करें।
निष्कर्ष:
- समय आ गया है कि अपने नागरिक एवं पुलिस प्रशासन के ढांचे का व्यापक रूप से कायाकल्प किया जाए, ताकि वह संवैधानिक दायित्वों को आवश्यक रूप से पूरा करने में सक्षम बन सके। कायाकल्प की इस यात्रा का आरंभ दायित्व के नाम परिवर्तन से होना चाहिए। हमें जिले के प्रमुख को मजिस्ट्रेट के बजाय मैनेजर यानी प्रबंधक के रूप में संबोधित करना होगा। उनकी भूमिका, दायित्व और जवाबदेही को नए सिरे से तय करना होगा। उन्हें मनमाने ढंग से काम करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
- स्वास्थ्य, आवास, पानी और बिजली के स्तर पर स्थिति सुधरी है। यह स्थिति तब और बेहतर हो सकती है, जब नौकरशाही के ढांचे को नए सिरे से गढ़ा जाए और प्रत्येक स्तर पर सक्रिय अधिकारियों को जवाबदेह बनाया जाए। इस दिशा में आवश्यक सुधारों में अब विलंब नहीं किया जाना चाहिए। इन सुधारों से विकसित राष्ट्र की राह खुलेगी।