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क्या है मामला?

  • इंटरनेट युग की शुरुआत से ही जानकारों ने वैज्ञानिक प्रकाशन संस्थानों के खात्मे की भविष्यवाणी कर दी थी, लेकिन उन सबके कयासों को विफल करता हुआ यह उद्योग डिजिटल युग की सबसे बड़ी सफलताओं में से एक बनकर उभरा है।
  • इस उद्योग ने सारी चेतावनियों को अनदेखा करते हुए अपने विशिष्ट व्यवसायिक मॉडल की बदौलत राजस्व और प्रॉफिट मार्जिन के मामले में गूगल एवं एप्पल जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी पीछे छोड़ दिया है। इस उद्योग को अपने उत्पाद निःशुल्क तो मिलते ही हैं।
  • साथ ही उनकी गुणवत्ता का उनके संबंधित क्षेत्रों के अग्रणी विशेषज्ञों द्वारा निःशुल्क या कौड़ी के दाम पर मूल्यांकन भी शामिल है जिसके बाद वे इन उत्पादों को ग्राहकों को ऊंची कीमतों पर बेचते हैं।
  • इस प्रक्रिया में उत्पादों के मूल निर्माता स्वयं भी अपने ही प्रकाशनों पर से स्वामित्व खो बैठते हैं क्योंकि उनसे पहले से ही बौद्धिक सम्पदा समझौते करा लिए जाते हैं।

लाभ:

  • यह अनुमानित 30 अरब अमेरिकी डॉलर का उद्योग है, जिसमें 35-40 प्रतिशत का आश्चर्यजनक प्रॉफिट मार्जिन है। ज्ञान इन उद्योगपतियों के चंगुल में रहता है क्योंकि शोधपत्र पे-वॉल (वेबसाइट पर साधारण उपयोगकर्ता एवं प्रीमियम उपयोगकर्ता के मध्य अन्तर रखने में प्रयुक्त तकनीक) के पीछे बंद रहते हैं।
  • अधिकांश लोग इन पत्रिकाओं का खर्च नहीं उठा सकते, यहां तक कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय जैसे सम्पन्न संस्थान भी नहीं। तो फिर विकासशील देशों में संस्थानों और विश्वविद्यालयों की दुर्दशा की कल्पना भी दुरूह है। लेकिन तो संस्थाएं और ही सरकारें इस व्यवस्था को बदलने में सक्षम हैं।

संचालन:

  • वैज्ञानिक, जो मुख्यतः सरकारों द्वारा वित्त पोषित होते हैं, अपने शोध के परिणाम एसटीएम प्रकाशकों को मुफ्त में देते हैं। अन्य वैज्ञानिक जो इन शोधपत्रों की समीक्षा करते हैं, यानी शोध की वैज्ञानिक वैधता की जांच करते हैं, वे भी यह काम मुफ्त में करते हैं।
  • प्रकाशक केवल संपादन का शुल्क वहन करते हैं जिसके बाद इन प्रकाशनों को सरकार द्वारा वित्त पोषित संस्थानों और विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों को वापस बेचा जाता है।
  • वैज्ञानिकों को कृषि, नर्सिंग और रासायनिक इंजीनियरिंग इत्यादि जैसे अपने अध्ययन के क्षेत्र में होने वाले विकास की जानकारी रखने की आवश्यकता होती है। यह एक अत्यlधिक विकृत प्रणाली है लेकिन शीर्ष पत्रिकाओं में प्रकाशित होने की संभावना को देखते हुए वैज्ञानिक इस प्रणाली के गुलाम बनकर रह गए हैं।
  • विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों और सरकारी संस्थानों का एकजुट सामूहिक प्रयास इस विचित्र व्यवस्था को समाप्त कर सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 2011 के आसपास,अपने घटते बजट के कारण कई अमेरिकी पुस्तकालयों ने सदस्यता समाप्त करने की धमकी दी, लेकिन प्रकाशकों ने झुकने से इनकार कर दिया और अपनी उच्च दरों पर कायम रहे। दरअसल, इससे उनके लाभ में अतिरिक्त वृद्धि हुई।
  • वाणिज्यिक एसटीएम प्रकाशन मॉडल के खिलाफ हुए एक वैश्विक विद्रोह ने एक ओपन एक्सेस (ओपन एक्सेस) प्रणाली को जन्म दिया, जो इस आदर्श पर आधारित कि वैज्ञानिक अनुसंधान सभी के लिए स्वतंत्र और खुला होना चाहिए कि केवल एल्सेवियर, विली, स्प्रिंगर और नेचर जैसे प्रकाशकों के लिए।
  • विद्वानों और वैज्ञानिकों द्वारा 2002 की बुडापेस्ट घोषणा के बाद से, ओपन एक्सेस आंदोलन ने लगातार गति पकड़ी है। इसका उद्देश्य ज्ञान अर्जन में मौजूद असमानताओं को समाप्त करने के लिए सभी बाधाओं को दूर करना है।
  • आईआईएससी शोधकर्ताओं को अनुसंधान-आधारित संस्थानों द्वारा बनाए गए डिजिटल रिपॉजिटरी में अपने पेपर को स्वयं-संग्रहित करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। वैज्ञानिक, औद्योगिक अनुसंधान परिषद, जैव प्रौद्योगिकी, विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभागों ने भी ओपन एक्सेस रिपॉजिटरी (संस्करण नियंत्रण) लॉन्च की है, लेकिन प्रगति निराशाजनक रही है क्योंकि वैज्ञानिक बिरादरी सरकार दोनों में इच्छाशक्ति की कमी है।

भारत का पक्ष:

  • भारत अनुसंधान संस्थानों और फंडर्स के अपने विशाल नेटवर्क के लिए एक राष्ट्रीय ओपन एक्सेस स्व-संग्रह जनादेश को अपनाकर बाकी दुनिया की मदद करने के साथ-साथ खुद की मदद करने के लिए भी विशेष रूप से सक्षम है।
  • शेष विश्व भारत के उदाहरण का अनुसरण करेगा। इसके बजाय, दुनिया बहुत आगे बढ़ गई है जबकि भारत में ओपन एक्सेस आंदोलन निष्क्रिय हो गया है। भारत का अधिकांश अनुसंधान आउटपुट पेवॉल्स के पीछे है, लेकिन उदाहरण के लिए, यूरोपीय देशों ने अपने हिसाब से ओपन एक्सेस को अपनाया है। सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों में डेनमार्क, यूके, फ्रांस और जर्मनी शामिल हैं।
  • इनकी ओपन एक्सेस प्रकाशन में हिस्सेदारी 83 प्रतिशत से 69 प्रतिशत तक है।

अन्य बिंदु:

  • ओपन एक्सेस पर वैज्ञानिकों की एक विशेषज्ञ समिति ने सुझाव दिया था कि सरकार प्री-प्रिंट्स (प्रकाशन का प्रारंभिक चरण) के साथ-साथ वैसे प्रकाशनों के संग्रह को प्रोत्साहित करे जिन्हें पत्रिकाओं द्वारा स्वीकार कर लिया गया हो।
  • साथ ही सरकारी फंडिंग एजेंसियों के भंडार को दुरुस्त करने का भी सुझाव दिया गया। तीन साल पहले, मोदी सरकार ने संकेत दिया था कि ओपन एक्सेस विज्ञान उसकी नई विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीति के केंद्र में होगा। इस दृष्टिकोण के केंद्र में एक भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी अनुसंधान संग्रह की स्थापना की गई थी, जो सभी सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित अनुसंधान के परिणामों को ओपन एक्सेस प्रदान करेगा।
  • किसी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध रिपॉजिटरी के जर्नल में प्रकाशित होने के बाद उस रिसर्च पेपर केफुल टेक्स्टके प्रकाशन की भी बात की गई थी।
  • इसका उद्देश्य लागत को कम करना है, जो सालाना लगभग 1,500 करोड़ रुपए बताई जाती है। इसका लक्ष्य एक-एक साझा सदस्यता के माध्यम से शोध पत्रिकाओं को उच्च शिक्षा के सभी सरकारी संस्थानों और अनुसंधान संगठनों को उपलब्ध कराना है जिनमें से कई अपने दम पर ऐसा करने में सक्षम नहीं थे। लम्बे समय से चली रही इस सौदेबाजी में 70 प्रकाशक शामिल हैं लेकिन कोई हल निकलता नहीं दिख रहा। सारे वैज्ञानिक इसके पक्ष में नहीं हैं।
  • ओनोस (ओपन नेटवर्क ऑपरेटिंग सिस्टम) का मतलब अभी भी प्रकाशकों को मोटी रकम देना है जो ओपन एक्सेस के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। इसके अलावा, शोध संस्थानों की विशाल संख्या और उनकी अलग प्रकृति को देखते हुए इस तरह के सौदे से कई छोटी पत्रिकाओं के पीछे छूटने की संभावना है।

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