सोलहवें वित्त आयोग की चुनौती

प्रसंग:

  • राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू शीघ्र ही 16वें वित्त आयोग का गठन करेंगी।

वित्त आयोग क्या है?

  • वित्त आयोग एक सांविधानिक निकाय है, जो केंद्र द्वारा इकट्ठा किए जाने वाले करों को केंद्र और राज्यों के बीच बांटने की जिम्मेदारी निभाता है। वित्त आयोग का गठन हर पांच वर्ष के अंतराल पर होता है।

अब तक की भूमिका:

  • आजादी के बाद से अब तक 15 वित्त आयोगों का गठन हो चुका है और उनके फैसलों ने राज्यों को वित्तीय संसाधन मुहैया कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है, जिसके जरिये विभिन्न राज्य सरकारें संविधान के अनुरूप अपने कर्तव्य का निर्वाह कर पाने में सक्षम हुईं।
  • एक सांविधनिक निकाय होने के अलावा वित्त आयोग केंद्र और राज्यों के बीच संसाधनों के बंटवारे का स्वतंत्र मध्यस्थ भी है। सरकार से बाहर के किसी स्वतंत्र निकाय द्वारा संसाधनों के बंटवारे की यह व्यवस्था अद्भुत तो है ही, इसे भारत की संघीय वित्तीय व्यवस्था की मजबूती का बड़ा कारण भी माना जाता है।
  • वित्त आयोग के फैसले पांच साल के लिए कार्यकारी होते हैं। फिलहाल 15वें वित्त आयोग के फैसले कार्यकारी हैं। 15वें वित्त आयोग ने केंद्र द्वारा इकट्ठा किए जाने वाले कुल करों का 41 फीसदी हिस्सा राज्यों को देने की सिफारिश की थी।

वित्त आयोग की आवश्यकता क्यों?

  • केंद्र सरकार द्वारा वसूले जाने वाले उपकरों और अधिभारों को राज्यों के साथ साझा करने का प्रावधान नहीं है। ऐसे ही विभिन्न सार्वजनिक उद्यमों से केंद्र द्वारा वसूले जाने वाले मुनाफा और लाभांश जैसे अनेक गैर कर राजस्वों को भी राज्यों के साथ बांटने का प्रावधान नहीं है।
  • कुल संसाधनों और वित्तीय संबंधों के मौजूदा ढांचे के मद्देनजर संसाधनों की जरूरत और उनकी उपलब्धता के बीच वित्त आयोग को हमेशा ही बेहतर संतुलन बनाना पड़ता है।
  • बेशक इस मामले में कोई स्थापित नियम नहीं है, लेकिन केंद्र और राज्यों की वित्तीय जरूरतों को ध्यान में रखते हुए वित्त आयोग इसका आकलन करता है कि संसाधनों का कितना हिस्सा राज्यों को स्थानांतरित करना चाहिए और कितना हिस्सा केंद्र के पास रहना चाहिए।
  • उत्तरोत्तर वित्त आयोग ने यह काम न सिर्फ बेहद प्रशंसनीय तरीके से करते हुए वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित की है, बल्कि इसी के साथ देश में वित्तीय सुधार के महत्वपूर्ण काम को भी अंजाम दिया है।

हालिया प्रगति:

  • 12वें वित्त आयोग ने राज्य स्तर पर नियम आधारित वित्तीय नियंत्रण का ढांचा लागू किया था, 13वें वित्त आयोग ने जीएसटी का ढांचा मुहैया कराते हुए वित्तीय अनुशासन के ढांचे को मजबूती दी थी, 14वें वित्त आयोग ने राज्यों को दिए जाने वाले करों की हिस्सेदारी बढ़ाकर 42 फीसदी की थी, ताकि राज्यों को ज्यादा वित्तीय स्वायत्तता प्राप्त हो, जबकि कोविड महामारी के बीच 15वें वित्त आयोग ने वित्तीय स्थिरता और राज्यों को उपलब्ध होने वाले संसाधनों के मामले में जरूरी ढांचा बनाने के बारे में सुझाया था।
  • चूंकि संसाधनों की आवश्यकता और प्रति व्यक्ति आय के मामले में विभिन्न राज्यों के बीच भारी अंतर है, ऐसे में, उत्तरोत्तर वित्त आयोगों ने इस समस्या के हल के लिए संसाधनों के हस्तांतरण में प्रगतिशील नजरिये का परिचय दिया है। यह इसी का नतीजा है कि प्रति व्यक्ति आय में निचले पायदान पर खड़े राज्यों को तुलनात्मक रूप से समृद्ध राज्यों की अपेक्षा संसाधनों का अधिक हिस्सा मिलता है।

चुनौतियाँ:

  • दीर्घावधि के नजरिये से देखें, तो 16वें वित्त आयोग को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में भू-राजनीतिक अनिश्चय के कारण आर्थिक मामले में बढ़ती वैश्विक अनिश्चितता के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास का आकलन कर पाना इनमें सबसे बड़ी चुनौती है। बेशक कोविड के बाद तेज आर्थिक विकास के मामले में भारत का प्रदर्शन सबसे अच्छा है, लेकिन लंबी अवधि के लिए विकास की भविष्यवाणी करते हुए विभिन्न अनिश्चितताओं और दूसरी बृहद आर्थिक अस्थिरताओं को भी ध्यान में रखना पड़ता है।
  • कोविड महामारी के कारण केंद्र और राज्यों के कर्ज कोविड से पहले की तुलना में बहुत अधिक बढ़ गए हैं। बेशक पिछले दो वित्त वर्षों में कर्ज का अनुपात थोड़ा घटा है, लेकिन कर्ज में कमी आने की यह प्रक्रिया निरंतर जारी रहनी चाहिए। इसके अलावा कई बड़े राज्यों का राजस्व घाटा बढ़ा है।

क्या किया जाना चाहिये?

  • उत्पादक कार्यों के लिए खर्च बढ़ाने का प्रभावी तरीका यह है कि गैर जरूरी खर्च में कमी की जाए, तथा व्यावसायिक गतिविधियों, रख-रखाव और पूंजीगत खर्च में वृद्धि की जाए। लेकिन पूंजीगत खर्च में वृद्धि राजस्व घाटे में कमी होने पर ही संभव है। ऐसे ही उत्पादक खर्च बढ़ाना तभी संभव है, जब राजस्व घाटे में कमी लाने के लिए कोविड के बाद के वित्तीय ढांचे पर अमल हो।
  • केंद्र और राज्यों के लिए दो और तथ्य महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। ये हैं देश के समृद्ध हिस्से की तरफ बढ़ता विस्थापन, जिससे शहरीकरण बढ़ रहा है, और दूसरा है जलवायु परिवर्तन। हालांकि वित्त आयोग नीति निर्धारक निकाय नहीं है, लेकिन यह स्थानीय स्तर पर विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित कर सकता है, जिससे शहर विकास के वाहक बनें और बड़े स्तर पर होने वाले विस्थापन का दबाव सह सकें। 73वें और 74वें संविधान संशोधन के समय से ही वित्त आयोगों ने राज्यों को अनुदान देकर इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है, ताकि राज्य विकेंद्रीकरण को अंजाम दे सकें।
  • इससे एक और कदम आगे बढ़ते हुए तेज शहरीकरण को बढ़ावा देने के लिए एक वित्तीय ढांचे पर काम करना शायद अब आवश्यक हो गया है। 13वें वित्त आयोग से ही पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन वित्त आयोगों के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो गए हैं। पिछले वित्त आयोगों ने इस दिशा में आंशिक प्रतिबद्धता ही दिखाई है। मसलन, उन्होंने राज्यों के हरित क्षेत्रों के आधार पर अनुदान और कर हस्तातंरित करने का फॉर्मूला अपनाया।
  • जलवायु परिवर्तन की भीषणता को देखते हुए अब इस पर समग्र रवैया अपनाने की जरूरत है और इस दिशा में रोडमैप सुझाने में वित्त आयोग की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण हो सकती है। इसके अलावा 16वें वित्त आयोग को वित्तीय दखल के लिए एक रोडमैप विकसित करने के लिए भी कहा जा सकता है, ताकि सभी स्तर के सरकारों के लिए जलवायु परिवर्तन की चुनौती का समन्वित तरीके से मुकाबला किया जा सके।

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