पश्चिमी विक्षोभ का बदला मिजाज

वर्तमान स्थिति:

  • भारत में पिछले तीन साल से सर्दियों का मौसम सामान्य नहीं रहा है। इस देश में मॉनसून के बाद दूसरा सबसे अधिक नमी वाला मौसम, यानी जाड़ा असामान्य तौर पर सूखा और गर्म रहा। भारत मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, बीते साल का दिसंबर देश में अब तक का सबसे गर्म दिसंबर था। उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में पूरे साल की 30 फीसदी बारिश सर्दियों में होती है। लेकिन, इस बार यहां बरसात में 83 फीसदी तक की कमी देखी गई। इसके बाद जनवरी का मौसम सामान्य रहा, लेकिन सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए 1901 के बाद इस बार की फरवरी सबसे गर्म रही। उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में 76 फीसदी कम बारिश हुई।
  • 2020-21 के बाद से असामान्य सर्दी का कारण पश्चिमी विक्षोभ के बदलते चरित्र में निहित है, जो भूमध्यसागरीय क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले चक्रवाती तूफानों की एक श्रृंखला निर्मित करता है। ये तूफान उत्तर-पश्चिम भारत में सर्दियों की बारिश लाने के लिए 9,000 किमी से अधिक की यात्रा करते हैं। कम दबाव वाले स्टॉर्म सिस्टम भारत में किसानों को रबी की फसल उगाने, हिमालय में बर्फ लाने और उत्तरी नदियों के प्रवाह को बनाए रखने में मदद करते हैं। वे पूरे साल धरती के चक्कर लगाने वाली उपोष्णकटिबंधीय पछुआ जेट स्ट्रीम नाम के वायु प्रणाली के माध्यम से इस देश तक पहुंचते हैं।
  • पश्चिमी विक्षोभ अपनी यात्रा के दौरान भूमध्य सागर, काला सागर और कैस्पियन सागर से नमी एकत्र करते हैं और पश्चिमी हिमालय से टकराने से पहले ईरान और अफगानिस्तान से होकर गुजरते हैं। मजबूत पश्चिमी विक्षोभ मध्य और पूर्वी हिमालय तक पहुंचते हैं और नेपाल व पूर्वोत्तर भारत में बारिश और बर्फबारी का कारण बनते हैं। पिछली बार 2019 में ये स्टॉर्म सिस्टम पूरे ताकत के साथ इस देश आए थे। तब से उनके आने में या तो देरी हुई है या फिर वे कमजोर रहे हैं।
  • अप्रैल 2015 में रिव्यूज ऑफ जियोफिजिक्स में प्रकाशित वेस्टर्न डिस्टर्बेंसेज: अ रिव्यूके अनुसार, भारत दिसंबर से मार्च के बीच औसतन हर महीने चार से छह बार तेज पश्चिमी विक्षोभ का सामना करता है। यानी इस पूरी अवधि के दौरान 16 से 24 पश्चिमी विक्षोभ की घटनाएं होती हैं। लेकिन इस बार सर्दी के दौरान देश में केवल तीन तेज पश्चिमी विक्षोभ आए। इनमें से दो जनवरी और एक बार मार्च में आए। दिसंबर और फरवरी बिना किसी तेज पश्चिमी विक्षोभ के ही बीत गए।
  • किसी बढ़ते हुए पश्चिमी विक्षोभ से पहले गर्म, नम हवा आती है और उसके बाद ठंडी, शुष्क हवा। यह सिस्टम दिसंबर और जनवरी जैसे अत्यधिक सर्दियों वाले महीनों में तापमान गर्म रखता है और फरवरी और मार्च में तापमान को बढ़ने से रोकता है।

प्रभाव:

  • 2016 में प्रकाशित किताब वेस्टर्न डिस्टर्बेंस-एन इंडियन मीटियोरोलॉजिकल पर्सपेक्टिवके अनुसार, पश्चिमी विक्षोभ से बनने वाले बादलों का सर्दी के मौसम के दौरान अधिकतम तापमान पर हल्का प्रभाव पड़ता है। लेकिन, ये बादल इस बार की सर्दी में गायब थे, इसलिए हिमालय से बहने वाली ठंडी उत्तरी हवाओं के कारण उत्तर भारतीय मैदानी इलाकों में दिसंबर और जनवरी के अधिकांश दिनों में तेज शीत लहरें और ठंड महसूस की गई।
  • असामान्य रूप से गर्म फरवरी की एक वजह जमीन की सतह के पास एक उच्च दबाव का क्षेत्र का बनना था, जिसके कारण हवा नीचे आती, सिकुड़ती और गर्म होती है। दिन का तापमान इतना अधिक होने से पकने से पहले यानी रीप्रोडक्टिव ग्रोथ पीरियड में गेहूं की फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इस पीरियड में फसल तापमान के प्रति संवेदनशील होती है। आईएमडी की विज्ञप्ति के अनुसार, फूल आने से लेकर फसल के पकने तक की अवधि में अगर तापमान ज्यादा हो जाए तो पैदावार में कमी आ जाती है।
  • एक तरह से आईएमडी ने चेतावनी दी है कि देश में पिछले साल जैसे हालात का सामना फिर से करना पड़ सकता है। पिछली बार कमजोर पश्चिमी विक्षोभ के कारण मार्च में तापमान बढ़ गया था। इस कारण पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में 30-40 फीसदी तक गेहूं की फसल का नुकसान हो गया। इसके नतीजे बहुत गंभीर रहे। घरेलू गेहूं की कीमतें आसमान छू गईं और केंद्र को गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने से लेकर अपने गेहूं के भंडार को कम कीमतों पर बेचने तक, कई मुश्किल फैसले लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।
  • पश्चिमी विक्षोभ बर्फबारी का पहला स्रोत भी है, जिससे सर्दियों के दौरान हिमालय के ग्लेशियरों पर दोबारा बर्फ जम पाती है। इन्हीं ग्लेशियरों से गंगा, यमुना और सिंधु जैसी प्रमुख हिमालयी नदियों के साथ-साथ अनगिनत पहाड़ी झरनों और दूसरी नदियों को भरपूर पानी मिल पाता है।
  • पूरे इलाके में जल सुरक्षा के लिहाज से ये ग्लेशियर काफी महत्वपूर्ण हैं। तापमान बढ़ने के कारण पर्माफ्रॉस्ट पिघल जाती है। इससे ग्लेशियरों पर पर्याप्त बर्फ नहीं जम पाती।
  • पश्चिमी विक्षोभ जो कुछ लाता है, वह सब का सब अच्छा हो, ऐसा जरूरी नहीं है। वे ओले भी लाते हैं, जिसकी वजह से खेत में खड़ी फसलों को नुकसान पहुंचता है। साथ ही यह कोहरे के लिए जिम्मेदार हैं, जिससे वायु, रेल, और सड़क सेवाओं में रुकावट आती है और इनकी वजह से ही बादल फटते हैं, जिससे अचानक बाढ़ आती है।

स्रोत: भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की तरफ से जारी आंकड़ों और विशेषज्ञों के साथ बातचीत के आधार पर

नाजुक संतुलन:

  • पश्चिमी विक्षोभ ऐसे चक्रवाती तूफान हैं, जो जमीन पर बनते हैं। ये तूफान ज्यादातर भूमध्यरेखीय क्षेत्र के तापमान में उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों से गर्म हवा और उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्रों से ठंडी हवा के मिश्रण की वजह से होने वाले उतार-चढ़ाव के कारण बनते हैं। 2018 में रॉयल मीटियोरोलॉजिकल सोसायटी के तिमाही जर्नल में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार, पश्चिम में कभी-कभी अलास्का तक और उत्तर में आर्कटिक क्षेत्र तक भी इसका निर्माण होता है।
  • पश्चिमी विक्षोभ का आकार एक घुमावदार, सर्पीला होता है। इसके नीचे का मुंह छोटा होता है (जो समुद्र तल से लगभग 5,500 मीटर की ऊंचाई पर बनता है) और ऊपर का मुंह चौड़ा होता है (जो समुद्र तल से 9,000 मीटर से अधिक की ऊंचाई पर बनता है)।
  • वैसे तो स्टॉर्म सिस्टम पूरे साल बनते रहते हैं, लेकिन ये ज्यादातर दिसंबर और अप्रैल के बीच भारत आते हैं, क्योंकि उन्हें एक जगह से दूसरी जगह ले जाने वाली उपोष्णकटिबंधीय पछुआ जेट स्ट्रीम के रास्ते में सर्दियों के दौरान बदलाव आ जाता है और वह हिमालय के नजदीक पहुंच जाता है। बाकी साल के लिए ये जेट स्ट्रीम हिमालय के ऊपर से होते हुए तिब्बती पठार और चीन के ऊपर से गुजरती है । इस जेट स्ट्रीम का रास्ता सूरज की स्थिति के अनुसार बदलता रहता है। मॉनसून की वापसी के बाद अक्टूबर में ये जेट स्ट्रीम उत्तरी भारत में दिखती है और सर्दियों के महीनों में उत्तरोत्तर दक्षिण की ओर बढ़ जाती है। यह फरवरी में एकदम दक्षिणी क्षेत्र में पहुंच जाती है और मई के बाद उपमहाद्वीप से बाहर चली जाती है।
  • पिछले 3 वर्षों से दुनिया ला नीना फेज में है। इसका संबंध प्रशांत महासागर में समुद्री सतह के ठंडा होने से है। इसकी वजह से गर्म ट्रॉपिकल हवा का तापमान गिर जाता है और पश्चिमी विक्षोभ को बनाने के लिए जरूरी तापमान का उतार-चढ़ाव कमजोर पड़ जाता है। आमतौर पर अल नीनो-दक्षिणी दोलन के ला नीना फेज के दौरान पश्चिमी विक्षोभ कमजोर पड़ जाते हैं। इस कारण सर्दियां शुष्क हो जाती हैं। वहीं, अल नीनो फेज में हालात इसके उलट होते हैं।
  • पश्चिमी विक्षोभ उत्तरी अटलांटिक महासागर पर हवा के दबाव के आकस्मिक उतार-चढ़ाव यानी उत्तरी अटलांटिक दोलन से भी प्रभावित होते हैं। इसमें मध्य उत्तरी अटलांटिक में अजोरस द्वीप समूह के ऊपर उच्च दबाव क्षेत्र और आइसलैंड पर कम दबाव वाले क्षेत्र बनते हैं। इस यह समय मौसम व्यवस्था नकारात्मक स्थिति में है, क्योंकि उच्च और निम्न दोनों दबाव प्रणालियां कमजोर हैं। अगस्त 2022 में क्लाइमेट डायनेमिक्स जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार, सकारात्मक स्थिति की तुलना में ऐसे हालात में पश्चिमी विक्षोभ की नियमितता में 20 फीसदी और तीव्रता में 7 फीसदी की कमी आती है।

दिखने वाले बदलाव:

  • पश्चिमी विक्षोभ कमजोर होता जा रहा है। भविष्य में इस प्रवृत्ति के और खराब होने की आशंका है। पश्चिमी विक्षोभ आमतौर पर कमजोर होते जा रहे हैं और इसलिए अपने साथ कम बारिश लाते हैं। लेकिन, जब वे ज्यादा बारिश लेकर आते हैं, तब हालात बहुत खराब हो जाते हैं। बीते 8 वर्षों के दौरान दिसंबर में आए पश्चिमी विक्षोभ की बात करें, तो 2017 और 2019 को छोड़कर 8 में से 6 साल यह काफी कमजोर रहे हैं।
  • इसका मुख्य कारण दिसंबर में उपोष्णकटिबंधीय पछुआ जेट स्ट्रीम का उत्तर की ओर खिसकना है। यह अरब सागर से थोड़ा और आगे बढ़ रही है, इसलिए उस आर्द्रता क्षेत्र तक उसकी पहुंच थोड़ी कम हो गई है। इस तरह के बदलाव से न केवल पश्चिमी विक्षोभ के भारत से टकराने की संभावना कम हो जाती है, बल्कि इससे तिब्बती पठार या यहां तक कि चीन और रूस तक उच्च अक्षांशों को प्रभावित करने की संभावना भी बढ़ जाती है। यह अप्रत्यक्ष रूप से दक्षिण-पश्चिम मॉनसून को प्रभावित कर सकता है, जो भारत की सालाना बारिश के 80 फीसदी हिस्से के लिए जिम्मेदार है। बर्फ अपने ऊपर पड़ने वाली सूरज की अधिकांश किरणों को परावर्तित कर देती है और जमीन को गर्म होने से रोकती है। इस घटना को अल्बीडो प्रभाव कहा जाता है।
  • आरसीपी 4.5 सबसे संभावित आधारभूत परिदृश्य है। जिसके हिसाब से कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन 2045 तक घटने लगेगा और 2100 तक 2050 के लगभग आधे स्तर तक पहुंच जाएगा। आरसीपी 8.5 सबसे खराब स्थिति वाला परिदृश्य है, जिसके अनुसार 21वीं सदी में उत्सर्जन में बढ़ोतरी जारी रहेगी।
कलर-शेडेड क्षेत्र इंटरक्वर्टाइल रेंज दर्शाते हैं।
स्रोत: 15 अगस्त, 2019 को जर्नल ऑफ क्लाइमेट में प्रकाशित “फॉलिंग ट्रेंड ऑफ वेस्टर्न डिस्टर्बेंस इन फ्यूचर क्लाइमेट सिमुलेशन” अगर तिब्बती पठार पर ज्यादा बर्फबारी होती है, तो यह उतना गर्म नहीं होगा, जितना इसे होना चाहिए। यह हालात जून में आने वाली मॉनसूनी हवाओं में रुकावट डालेंगे। सर्दियों के मौसम में जब उपोष्णकटिबंधीय पछुआ जेट स्ट्रीम ध्रुवीय जेट स्ट्रीम से मिलती है, तब वह ऊपर की ओर बढ़ती है। आर्कटिक वॉर्मिंग की वजह से इस तरह के मेल की संभावना बढ़ जाती है, जो ध्रुवीय जेट स्ट्रीम को लहरदार बनाती है।
  • हालांकि, भारत में सर्दियों के दौरान पश्चिमी विक्षोभ का आना काफी कम हो गया है, लेकिन गर्मियों में उनकी आमद बढ़ गई है। आर्कटिक क्षेत्र में वॉर्मिंग के कारण उपोष्णकटिबंधीय पछुआ जेट स्ट्रीम गर्मी के मौसम में नीचे की ओर बढ़ रही है। इससे गर्मी, मॉनसून और उसके बाद पश्चिमी विक्षोभ के दक्षिण-पश्चिम मॉनसून के संपर्क में आने की संभावना बढ़ जाती है।
  • इसके साथ ही बंगाल की खाड़ी या अरब सागर से उत्तर की ओर बढ़ने वाली स्थानीय संवहन प्रणालियों जैसे कि उष्णकटिबंधीय अवसाद से भी उसके संपर्क की संभावना बढ़ जाती है। इस तरह का संपर्क विनाशकारी मौसमी आपदाओं का कारण बन सकता है।
  • जब उष्णकटिबंधीय अवसाद जमीन से टकराते हैं, तब उनका ईंधन खत्म होने लगता है, क्योंकि उन्हें बने रहने के लिए खुद को काटने-छांटने और सतह के गर्म तापमान की जरूरत होती है। पश्चिमी विक्षोभ उन्हें लंबे समय तक चलने में मदद करते हैं। इनकी वजह से उपोष्णकटिबंधीय अवसाद भारत के उन हिस्सों में भारी बारिश का कारण बनते हैं, जहां वे आमतौर पर नहीं जाया करते। इस तरह के संपर्क की वजह से ही जून 2013 में उत्तराखंड में बाढ़ आई थी, जिसमें 6,000 से अधिक लोग मारे गए और 1.1 अरब अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ था।
  • दक्षिण-पश्चिम मॉनसून से जुड़े एक उष्णकटिबंधीय अवसाद के बाद पश्चिमी विक्षोभ में नमी आई और फिर बाढ़ आने की शुरुआत हुई। मई 2021 में गुजरात के तट पर आया तौकते चक्रवात की धमक दिल्ली तक पहुंची। उसके पश्चिमी विक्षोभ से मिलने के कारण दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में भारी बारिश हुई। इस कारण राष्ट्रीय राजधानी का अधिकतम तापमान 16 डिग्री तक गिर गया।

निष्कर्ष:

  • हर दिन गर्म होती दुनिया में मौसमी घटनाएं और अधिक अप्रत्याशित हो जाएंगी। हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि अभी सटीक प्रभाव का अध्ययन किया जाना बाकी है। हालांकि, इस क्षेत्र में अभी भी काफी रिसर्च होनी है। आर्कटिक क्षेत्र के गर्म होने के कारण भारत के ऊपर पश्चिमी विक्षोभ के बनने की फ्रीक्वेंसी ज्यादा होनी चाहिए। पश्चिमी हिंद महासागर में समुद्री सतह की गर्मी बढ़ने से भाप बनने में तेजी आ सकती है जिससे वातावरण में नमी की मात्रा बढ़ सकती है।
  • इसके साथ ही ग्लोबल वॉर्मिंग मेडिटेरेनियन क्षेत्र के तापमान में उतार-चढ़ाव को कम कर सकती है, जो पश्चिमी विक्षोभ के निर्माण के लिए अहम है। उष्णकटिबंधीय प्रशांत क्षेत्र में पूर्व की ओर वॉर्मिंग कम होगी, जैसा कि पिछले दो दशकों से हो रहा है। हिमालय के ग्लेशियरों के लिए यह बुरी खबर हो सकती है। लेकिन, गर्म हवा में अधिक नमी होने के कारण हिमालय के कुछ हिस्सों में ज्यादा बर्फ गिरेगी। हमें बर्फ की बजाय अधिक बारिश कराने वाली गर्म हवा की चिंता करनी होगी, जो ग्लेशियरों के लिए नुकसानदेह हो सकती है।

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