पश्चिम एशिया का संकट

प्रसंग:

इस्राइल और हमास में चले रहे युद्ध को पूरे पश्चिम एशिया के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जहां की शांति, सुरक्षा स्थायित्व सभी के लिये आवश्यक है।

भारत के लिए क्यों महत्वपूर्ण?

  • भारत करीब 70 फीसदी तेल और गैस यहीं से आयात करता है। पश्चिम एशियाई देशों में 90 लाख से भी ज्यादा भारतीय रहते हैं, जो करोड़ो डॉलर भारत भेजते हैं। ज्यादातर वैश्विक व्यापार और समुद्री मार्ग पश्चिम एशिया से ही गुजरते हैं।
  • तेल की कीमतें बढ़ने लगी हैं। भारत ज्यादातर तेल का आयात करता है, इसलिए इससे भारत के खर्चे बढ़ेंगे, जिससे महंगाई बढ़ेगी, जो सीधे तौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगी।
  • संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ट्रांजिट बिंदु है। वहां हमारी छह-सात हजार कंपनियां हैं, जो भारत में निवेश कर रही हैं। सऊदी अरब भी भारत में निवेश बढ़ाने की कोशिश में है। क्षेत्र में अशांति से ये निवेश निश्चित ही प्रभावित होंगे।
  • ईरान के साथ हमारे संबंध भी जटिल हो सकते हैं। ईरान के साथ संबंधों में चाबहार बंदरगाह और अंतरराष्ट्रीय नॉर्थ-साउथ कॉरिडोर परियोजनाएं महत्वपूर्ण हैं, जिन पर प्रभाव पड़ सकता है।
  • जी-20 शिखर सम्मेलन में जिस भारत-मध्य पूर्व-यूरोप गलियारे (आइमेक) की स्थापना पर, जिसे चीन की बेल्ट ऐंड रोड पहल (बीआरआई) का जवाब माना जा रहा है, जो स्वीकृति बनी थी, उस पर और अन्य क्षेत्रीय परियोजनाओं पर भी संकट मंडराने लगे हैं।
  • इस्राइल-हमास युद्ध पूरी दुनिया की तरह भारत के मुस्लिम समुदाय को भी प्रभावित कर सकता है। खासकर गाजा में जो स्थितियां हैं, जिस तरह वहां के नागरिकों को निशाना बनाया जा रहा है, उन्हें देखकर भारत के मुस्लिम समुदाय में भी आक्रोश भड़क सकता है। हालांकि, भारत के लिए अच्छी बात यह है कि यहां के ज्यादातर मुसलमान आतंकवाद में भरोसा नहीं करते हैं और यही उनकी भारतीयता है।

आगे की राह:

  • भारत की स्वतंत्रता से पहले महात्मा गांधी ने कहा था कि जैसे इंग्लैंड अंग्रेजों के लिए और फ्रांस फ्रेंच लोगों के लिए है, उसी तरह फलस्तीन फलस्तीनियों के लिए है। 1948 में जब पहली बार वोट हुआ, तब भारत ने फलस्तीन को बांटने के प्रस्ताव के विरोध में मत दिया था। 1950 में भारत ने आधिकारिक तौर पर इस्राइल राज्य को मान्यता दी, लेकिन आधिकारिक राजनयिक संबंध 1992 में जाकर स्थापित किए। दोनों देशों को लेकर फिलहाल भारत का पक्ष दो-राज्य समाधान और शांतिपूर्ण ढंग से दोनों देशों के लिए आत्मनिर्णय के अधिकार के साथ डी-हाईफनेशन की नीति की ओर बढ़ गया है। जब इस्राइल पर हमला हुआ, तो प्रधानमंत्री मोदी ने इस्राइल के लोगों के प्रति सहानुभूति दिखाई। फिर विदेश मंत्रालय ने भी स्पष्ट किया कि भारत दो-राज्य सिद्धांत का हिमायती है। फिर जब गाजा के अस्पताल पर हमला हुआ, जिसमें 500 लोग मारे गए थे, तब प्रधानमंत्री मोदी ने फलस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास से भी बात की थी।
  • इस्राइल पर हमास के हमले के बाद पूरी दुनिया दरअसल, बंटी हुई दिखती है। कुछ आतंकी हमले में मारे गए हजारों इस्राइलियों के साथ सहानुभूति रखते हैं, तो कुछ वर्षों से जुल्म सह रहे फलस्तीनियों के साथ खड़े दिखते हैं। भारत में भी यही हालत है। लेकिन जरूरी यह है कि इस सहानुभूति को शांति और युद्ध विराम के प्रयासों की तरफ मोड़ा जाए। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय का होना जरूरी है। भारत जैसे देशों को आगे आना चाहिए।
  • इस्राइल-हमास युद्ध में शांति बहाली के प्रयासों की अगुआई भारत को करनी चाहिए। एक प्रतिनिधि मंडल बनाकर पड़ोसी देशों के साथ मिलकर युद्ध को रोकने की किसी योजना पर काम किया जा सकता है। जी-20 सम्मेलन में भारत की सॉफ्ट पॉवर सबने देखी है। पश्चिम एशियाई देश भी चाहते हैं कि भारत आगे आए। भारत जब कहता है, तो दुनिया सुनती है, क्योंकि वह सिद्धांतों की बात करता है।
  • भारत दरअसल, बिल्कुल संतुलित रवैया रखते हुए चाहता है कि वहां शांति की स्थापना हो और कोई रास्ता निकले। दोहा, कतर, तुर्किये और मिस्र जैसे देश शांति बहाली के लिए वार्ताएं कर रहे हैं, लेकिन अगर इस्राइल जमीनी लड़ाई पर उतरता है, और जिस तरह से हिजबुल्ला, लेबनान की तरफ से दबाव बनाए हुए है, उससे तो युद्ध का लंबा खिंचना तय लगता है।
  • रूस-यूक्रेन और अब इस्राइल-हमास के बीच युद्धों ने वैश्विक व्यवस्था को बदलने का काम किया है और इनके नतीजे ही बताएंगे कि दुनिया किस तरफ जाएगी। मुमकिन है कि शीतयुद्ध 2.0 जैसी स्थिति हो, जिसमें रूस, चीन कुछ देश एक तरफ और अमरिका यूरोपीय देश दूसरी तरफ हों। तीसरे पक्ष की भूमिका अगर कोई निभा सकता है, तो वह भारत है, जो रणनीतिक स्वायत्तता की नीति अपनाते हुए उन तमाम देशों को जोड़ सकता है, जो किसी भी गुट में शामिल होना चाहें।

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