तथ्य:
- ए सी नेल्सन की हालिया 'इंडिया इंटरनेट रिपोर्ट, 2023' के आंकड़े के मुताबिक, ग्रामीण भारत में 42.5 करोड़ से अधिक इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं, जो शहरी भारत की तुलना में 44 फीसदी अधिक हैं। इनमें से 29.5 करोड़ लोग नियमित रूप से इंटरनेट का उपयोग करते हैं।
क्या है यह तकनीक?
- डीपफेक एक पेचीदा तकनीक है। इसके लिए मशीन लर्निंग यानी कंप्यूटर में दक्षता होनी चाहिए। डीपफेक कंटेंट दो एल्गोरिदम का उपयोग करके तैयार किया जाता है, जो एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करता है। एक को डिकोडर कहते हैं, तो दूसरे को एनकोडर। इसमें वह फेक डिजिटल कंटेंट बनाता है और डिकोडर से यह पता लगाने के लिए कहता है कि कंटेंट असली है या नकली। हर बार डिकोडर कंटेंट को असली या नकली के रूप में सही ढंग से पहचानता है, फिर वह उस जानकारी को एनकोडर को भेज देता है, ताकि अगले डीपफेक में गलतियां सुधार कर उसे और बेहतर किया जा सके।
- डीपफेक में कृत्रिम मेधा एवं आधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल के जरिये किसी वीडियो क्लिप या फोटो पर किसी और व्यक्ति का चेहरा लगाने का चलन तेजी से बढ़ा है। इसके जरिये कृत्रिम तरीके से ऐसे क्लिप या फोटो विकसित किए जा रहे हैं, जो देखने में वास्तविक लगते हैं। डीपफेक एक अलग तरह की समस्या है, जिसमें वीडियो सही होता है, पर तकनीक से चेहरा, वातावरण या असली ऑडियो बदल दिया जाता है और देखने वाले को इसका पता नहीं लगता कि वह डीपफेक वीडियो देख रहा है।
यह समस्या क्यों है?
- किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर ऐसे वीडियो के आने के बाद उनकी प्रसार गति बहुत तेज हो जाती है। इंटरनेट पर ऐसे करोड़ों डीपफेक वीडियो मौजूद हैं। इस तकनीक की शुरुआत अश्लील कंटेंट बनाने से हुई। पोर्नोग्राफी में इस तकनीक का काफी इस्तेमाल होता है। अभिनेता और अभिनेत्री का चेहरा बदलकर अश्लील कंटेंट पोर्न साइट्स पर पोस्ट किया जाता है।
- डीपट्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में ऑनलाइन पाए गए डीपफेक वीडियो में 96 फीसदी अश्लील कंटेंट था। इस तकनीक का इस्तेमाल मनोरंजन के लिए भी किया जाता है। डीपफेक कंटेंट की पहचान करने के लिए कुछ खास चीजों पर ध्यान देना जरूरी है। उनमें सबसे पहली है चेहरे की स्थिति। अक्सर डीपफेक तकनीक चेहरे और आंख की स्थिति में मात खा जाती है। देश में डिजिटल साक्षरता कम होने के कारण डीपफेक वीडियो समस्या को और गंभीर बनाते हैं।
इंटरनेट की दुविधा:
- कृत्रिम मेधा (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) के आगमन से पत्रकारिता उद्योग में उम्मीदें बढ़ी थीं। आशा थी कि कृत्रिम मेधा से फेक न्यूज और गलत सूचना के प्रसार को रोकने का एक प्रभावी तरीका मिल जाएगा। पर व्यवहार में इसका उल्टा ही हो रहा है। एक तरफ प्रौद्योगिकी ने आर्थिक और सामाजिक विकास किया है, तो दूसरी ओर फेक न्यूज़ में वृद्धि हुई है। लोकतांत्रिक राजनीति के लिए अड़चन पैदा करने और चरित्र हनन करने में इंटरनेट एक शक्तिशाली औजार के रूप में उभरा है।
निष्कर्ष:
- सोशल मीडिया सामान्यतया एक तरह के ईको चैंबर का निर्माण करता है, जिसमें एक जैसी रुचियों व प्रवृत्तियों वाले लोग आपस में जुड़ते हैं। ऐसे में डीपफेक वीडियो का प्रसार रोकने के लिए बुनियादी शिक्षा में मीडिया साक्षरता और आलोचनात्मक सोच पाठ्यक्रम को शामिल करने की आवश्यकता है, ताकि जागरूकता को बढ़ावा दिया जा सके और लोगों को फेक न्यूज से बचाने में मदद करने के लिए एक सक्रिय दृष्टिकोण विकसित किया जा सके।