दहेज निषेध अधिनियम की समस्या

प्रसंग:

  • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने हाल में स्वप्नदास बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में कठोर टिप्पणी करते हुए कहा, ‘महिलाओं ने भारतीय दंड संहिता यानी आइपीसी की धारा 498 ए का दुरुपयोग करके एक तरह से कानूनी आतंकवाद फैला दिया है।’
  • कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि यह धारा महिलाओं की भलाई के लिए बनाई गई थी, लेकिन अब झूठे मामले दर्ज कराकर इसका दुरुपयोग किया जा रहा है।
  • बीते कुछ वर्षों के दौरान देश की विभिन्न अदालतों ने दहेज के झूठे मामलों पर कठोर टिप्पणियां की हैं, परंतु इसके साथ ही पुलिस की कार्यप्रणाली को भी कठघरे में खड़ा किया है और उस मानसिकता के प्रति चिंता जाहिर की है, जो पुरुषों को बिना सत्यता परीक्षण के अपराधी मान लेती है।

तथ्य:

  • बीते वर्षों में 498 ए में गिरफ्तार किए गए लोगों में से अनुमानतः 90 प्रतिशत प्री-ट्रायल स्तर पर ही निर्दोष पाए गए। जिन मामलों में मुकदमे चले, उनमें भी करीब 80 प्रतिशत निर्दोष करार दिए गए। उन्हें बिना किसी जांच के गिरफ्तार किया गया था। साफ है कि एक समाधान ने समस्या का रूप ले लिया है। यदि इस कानून के दुरुपयोग पर शीघ्र ही गंभीरता से मंथन नहीं किया गया तो हजारों निर्दोष इसी प्रकार जेल जाते रहेंगे।
  • वर्ष 1961 में जब दहेज प्रतिषेध अधिनियम पारित हुआ था, तब उसमें दर्ज किया गया था कि यदि कोई व्यक्ति दहेज देगा या लेगा अथवा दहेज देने या लेने को प्रेरित करेगा तो वह दंड का पात्र होगा और उसके कारावास की अवधि पांच वर्ष से कम की नहीं होगी।

समस्या की जड़:

  • यदि दहेज देना और लेना समान रूप से दंडनीय अपराध है तो यक्ष प्रश्न यह है कि क्यों सिर्फ अदालतों में दहेज लेने के मामले पहुंचते हैं? क्यों दहेज देना पुलिस एवं न्यायपालिका की कार्यप्रणाली में विलुप्त प्रतीत होता है? दहेज प्रतिषेध कानून पारित होने के पश्चात कुछ ही मामले ऐसे सामने आए, जहां न्यायालय ने दहेज देने वालों के विरुद्ध केस दर्ज करने के आदेश दिए। क्या यह विचारणीय तथ्य नहीं है कि क्यों दहेज निरोधक कानून का एकपक्षीय पहलू यानी दहेज लेना ही चर्चा का विषय बनता है? दहेज देने को लेकर बने कानून पर यूं आंखें मूंद लेना कई प्रश्नों को जन्म देता है।
  • यह निर्विवादित तथ्य है कि दहेज की बुराई के चलते देश में तमाम लड़कियां प्रताड़ित होती हैं या अपनी जान से हाथ धो बैठती हैं, परंतु क्या कारण है कि अभिभावकों के भीतर यह चेतना जागृत नहीं हो पा रही कि दहेज मांगने वाले परिवार में उनकी बेटी असुरक्षित हो सकती है? एक प्रश्न यह भी है कि विवाह के पश्चात दहेज की मांग के विरुद्ध न्यायालय का दरवाजा खटखटाने वाली लड़की विवाह से पूर्व ही ऐसे परिवार से रिश्ता जोड़ने से इन्कार क्यों नहीं कर देती, जो दहेज का लोभी है?

अन्य मामले:

  • कुछ वर्ष पहले अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य एवं अन्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा था कि ऐसा प्रतीत होता है कि पुलिस ने दंड प्रकिया संहिता यानी सीआरपीसी में निहित पाठ का सबक सही तरह से नहीं सीखा है। इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि दहेज संबंधी मामलों में समय-समय पर न्यायालयों द्वारा पुलिस को दिए गए दिशा-निर्देशों की अवहेलना के चलते उन महिलाओं के हौसले बढ़ गए हैं, जिन्होंने उनकी सुरक्षा के लिए बने कानून का हथियार के रूप में प्रयोग किया है। कई बार तो पति-पत्नी में अनबन के चलते इस कानून का इस्तेमाल ससुराल वालों को प्रताड़ित करने के लिए किया जाता है।
  • नीरा सिंह बनाम दिल्ली सरकार (2007) मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा था कि दहेज की मांग के बावजूद यदि वयस्क और शिक्षित महिला दहेज लेने वाले व्यक्ति से शादी करती है तो वह और उसका परिवार दहेज निषेध अधिनियम के तहत अपराध में भागीदार बन जाता है। यह एक कटु सत्य है कि ‘स्त्री-धन’ के रूप में दिया गया उपहार दो परिवारों के मध्य कड़वाहट होते ही दहेज का रूप धारण कर लेता है।
  • दहेज तथा स्त्री धन के मध्य विभेद की रेखा का निर्धारण कानून में उल्लिखित नियमों के आधार पर न होकर संबंध-माधुर्य मापदंड के आधार पर निर्धारित होता है। विष्णु बनाम केरल राज्य तथा अन्य के मामले में नवंबर 2021 के अपने एक निर्णय में केरल उच्च न्यायालय ने टिप्पणी करते हुए कहा था कि विवाह के समय दुल्हन को बिना किसी मांग के दिए गए उपहार और जो इस अधिनियम के तहत बनाए गए नियमों के अनुसार बनाई गई सूची में दर्ज किए गए हैं, वे धारा 3(1) के दायरे में नहीं आएंगें, जो दहेज देने या लेने पर रोक लगाती है। विधि आयोग ने अपनी 159वीं रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए के प्रविधानों का दुरुपयोग हो रहा है।

असंतुलित सामाजिक व्यवस्था:

  • दिल्ली की एक ट्रायल अदालत यह कह चुकी है, ‘हर कोई महिलाओं के अधिकारों को लेकर लड़ रहा है, लेकिन उन पुरुषों के लिए कानून कहां हैं, जो महिलाओं द्वारा झूठे केस में फंसा दिए जाते हैं? शायद इस बारे में कदम उठाने का वक्त आ चुका है।’ दिल्ली की ट्रायल अदालत की उक्त टिप्पणी यह बताने के लिए पर्याप्त है कि सामाजिक व्यवस्था असंतुलित हो रही है और यदि इस पर ठोस निर्णय नहीं लिए गए तो भविष्य में न्याय व्यवस्था से एक बड़े वर्ग का विश्वास उठ जाएगा। यह स्थिति समाज को बिखेर देगी। समय आ गया है कि दहेज निरोधक कानून में ऐसे संशोधन-परिवर्तन किए जाएं कि उनका मनमाना इस्तेमाल और दुरुपयोग रुके। इस कानून को लिंग निरपेक्ष बनाने पर विचार किया जाना चाहिए।

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