मौजूदा हालात हमें भविष्य की पारिस्थितिकीय असुरक्षा की तरफ ले जा रहे हैं। जिस तरह से पहाड़ टूट रहे हैं और लगातार भू-स्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं, एक दिन ऐसा भी हो सकता है कि हिमालय अपना अस्तित्व खो दे। इसलिए हिमालय को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर गंभीर चिंतन-मंथन होना चाहिए। यह मात्र पहाड़ को बचाने के लिए नहीं, बल्कि देश की पारिस्थितिकी सुरक्षा को भी बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण होगा। इसके साथ सीमा सुरक्षा भी अपने आप जुड़ जाती है।
पिछले सबक:
इस बार की बारिश ने एक बार फिर से उत्तराखंड में 2013 की केदारनाथ त्रासदी की यादें ताजा कर दी हैं। हालांकि लगातार 72 घंटों से ज्यादा समय तक हुई बारिश से पूरे देश के विभिन्न हिस्से प्रभावित हुए हैं, लेकिन बारिश का सबसे ज्यादा असर अगर कहीं पड़ा है, तो वह पहाड़ी क्षेत्र ही है। हिमाचल प्रदेश के हालात तो बहुत गंभीर हो गए हैं। मनाली, मंडी जैसे पर्यटक स्थल आज पूरी तरह सूने हो चुके हैं। एक बार फिर जनमानस में उसी भय ने जगह बना ली है, जो केदारनाथ त्रासदी के कारण हुई थी। जान-माल के भारी नुकसान की खबरें भी हैं और आने वाले समय में ही पूरे नुकसान का आकलन किया जा सकेगा
पर्यावरण परिवर्तन और प्रभाव:
- दुनिया के बदलते पर्यावरण का अगर किसी को सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता है, तो वह हिमालय क्षेत्र ही है।
- पृथ्वी का औसत तापमान 17 डिग्री सेल्सियस को पार कर चुका है। वर्ष 2016 से 2022 के बीच में यह करीब 12 से 17 डिग्री सेल्सियस के बीच में झूल रहा था। वर्ष 2016 में औसत तापमान 16.8 डिग्री सेल्सियस था, जो अब 17 डिग्री सेल्सियस का आंकड़ा पार कर चुका है। इसका सीधा असर समुद्रों पर पड़ता है, क्योंकि पृथ्वी में सबसे ज्यादा समुद्र ही हैं। जब कभी समुद्र का तापक्रम बढ़ेगा, तो स्वाभाविक है कि वाष्पोत्सर्जन होगा और यही टुकड़ों-टुकड़ों में बारिश बनकर जगह-जगह कहर ढाता रहेगा।
- प्रकृति के चक्र को तो हम समझते ही हैं कि गर्मियों में मानसून समुद्र से उत्पन्न होता है और यह उत्तर भारत का रुख करता है, जिससे देश में इस समय बारिश होती है। लेकिन इस बार हमने देखा कि जून आने और मानसून के उत्पन्न होने से पहले ही बारिश पड़ी थी। यह सबसे बड़ा संकेत था कि समुद्र में उत्पन्न वाष्पोत्सर्जन और उसके साथ चली हुई हवाएं और तापक्रम का अंतर ही उस बारिश को लाया था, जिसे हमने पश्चिमी विक्षोभ का असर बताया था। पर अब हालात बदले हुए हैं। लगातार औसत तापमान के बढ़े होने के कारण समुद्र में तूफान तो चलेंगे ही, लेकिन पृथ्वी पर कब किस समय वर्षा हो जाए, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकेगा। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की रिपोर्ट ने भी बताया था कि जिस तरह से पृथ्वी के तापमान में अंतर आ रहा है, कई हलचलों के अलावा अगर इसका सबसे बड़ा प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, तो वह सीधे पहाड़ों पर पड़ेगा। इसे सरल तरीके से इस तरह समझा जा सकता है कि धरती के बढ़ते तापमान और उसके कारण समुद्र में हुए वाष्पोत्सर्जन के कारण मैदानी इलाकों में उमस बढ़ती है। समुद्र में वाष्पोत्सर्जन के कारण उठी हवाएं जब पहाड़ की ओर चलती हैं, तो वहां तापक्रम में कमी पाने पर बरस जाती हैं।
हिमालय पर प्रभाव:
हिमालयी क्षेत्र देश का एक हिस्सा मात्र नहीं है, बल्कि वह प्राकृतिक संसाधनों-हवा, मिट्टी, जंगल, पानी का स्रोत है, क्योंकि आज भी सबसे ज्यादा वन, नदियां और हिमखंड, जिनके ऊपर दो अरब लोगों का जीवन निर्भर है, का स्रोत हिमालय ही है। यह तो हम जानते ही हैं कि आर्थिक विषमताओं के कारण पर्वतीय राज्य विकास की दौड़ में पिछड़ रहे हैं, लेकिन अब इसमें पारिस्थितिकीय (इकोलॉजिकल) विषमता भी जुड़ गई है, जो भारी पड़ रही है। इसका समाधान तभी संभव होगा, जब हम प्रकृति और पर्यावरण को लेकर गंभीर होंगे। हिमालय के संदर्भ में यह आज बहुत बड़ा मुद्दा बन चुका है। यहां की आर्थिकी पारिस्थितिकी पर केंद्रित होनी चाहिए।
मौजूदा हालात हमें भविष्य की पारिस्थितिकीय असुरक्षा की तरफ ले जा रहे हैं। जिस तरह से पहाड़ टूट रहे हैं और लगातार भू-स्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं, एक दिन ऐसा भी हो सकता है कि हिमालय अपना अस्तित्व खो दे। इसलिए हिमालय को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर गंभीर चिंतन-मंथन होना चाहिए। यह मात्र पहाड़ को बचाने के लिए नहीं, बल्कि देश की पारिस्थितिकी सुरक्षा को भी बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण होगा। इसके साथ सीमा सुरक्षा भी अपने आप जुड़ जाती है।
इस समय यह भी संज्ञान में लेना चाहिए कि आईपीसीसी की विश्व पर्यावरण रिपोर्ट में क्या कहा गया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि आईपीसीसी की रिपोर्ट आज कहीं न कहीं उस सत्य को स्थापित कर रही है। वैज्ञानिकों ने आशंका जाहिर की है कि पर्यावरण और प्रकृति अब साथ छोड़ रही है। पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में और देश में ये घटनाएं, जो आज हमारे बीच में बारिश के रूप में कहर ढा रही है, इसे कतई मानसून का सामान्य व्यवहार नहीं कहा जा सकता है। इस तरह लंबे समय तक इस तीव्रता से बारिश मौसम की असामान्यता का ही संकेत है।
देश और दुनिया के समक्ष आज सबसे बड़ा विषय यह है कि हमें आर्थिक विकास के साथ-साथ प्रकृति के संरक्षण के प्रति भी उतना ही गंभीर होना पड़ेगा। प्रकृति की अनदेखी करके हम आर्थिक विकास नहीं कर सकते, क्योंकि प्रकृति की अनदेखी के कारण जो आपदाएं आएंगी, वे विकास की तमाम उपलब्धियों को धो-पोंछकर हमें फिर कई दशक पीछे छोड़ देंगी। इसलिए हमें बीच का रास्ता निकालने की जरूरत है। हमें एक बड़े चिंतन को जगह देनी होगी, जो मात्र प्रकृति पर केंद्रित हो और एक ऐसी आर्थिकी, जो पारिस्थितिक केंद्रित हो, वही हिमालय के प्रति हमारी सबसे बड़ी समझ होगी।
निष्कर्ष:
दुर्भाग्य यह है कि जो हवा, मिट्टी, पानी का रक्षक है, वही हमारी नामसमझी के कारण शिकार हो गया है। हिमालयी क्षेत्र हमेशा से आर्थिक असमानता को झेलता था, पर अब इस तरह के मौसमी कहर ने पारिस्थितिकी असुरक्षा भी पैदा कर दी है। यह ऐसी असुरक्षा है, जो आर्थिक असुरक्षा की तरह एक सीमा तक ही सीमित नहीं रहेगी, बल्कि यह पूरे देश में कई तरह के संकट खड़े कर देगी।
हिमालय लंबे समय से आर्थिक, सामाजिक, पारिस्थितिक सुरक्षा की गुहार लगा रहा है। ऐसे में, यह उम्मीद करनी चाहिए कि नीति-निर्माता गंभीर कदम उठाते हुए राष्ट्रीय स्तर पर हिमालय पर चिंतन-मनन करवाने की पहल करेंगे, जिसमें भू-वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता और विकास कार्यक्रमों से जुड़े लोग मिलकर हिमालयी क्षेत्र में विकास की अभिनव रूपरेखा तैयार करेंगे।