आवश्यक क्यों?
- कल्पना हमें नए विचारों और अवसरों को देखने की अनुमति देती है, जबकि कौशल हमें उन विचारों को वास्तविकता में बदलने की अनुमति देते हैं। बिना कल्पना के, हम केवल वर्तमान परिस्थितियों से बंधे होंगे। बिना कौशल के, हम अपने सपनों को पूरा नहीं कर पाएंगे।
- कल्पना स्वतंत्रता को कई तरीकों से बढ़ावा देती है। यह हमें नए तरीकों से सोचने और समस्याओं को हल करने की अनुमति देती है। यह हमें नए लक्ष्य निर्धारित करने और उन्हें प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। यह हमें नए अनुभवों और रोमांचों की खोज करने के लिए प्रोत्साहित करती है।
- कौशल स्वतंत्रता को बढ़ावा देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने और अपने सपनों को पूरा करने में सक्षम बनाते हैं। वे हमें दूसरों पर निर्भर होने से बचाते हैं और हमें अपने जीवन को नियंत्रित करने की अनुमति देते हैं।
- कल्पना और कौशल के बिना, स्वतंत्रता केवल एक छाया है। यह एक आभासी स्वतंत्रता है जो वास्तविक दुनिया में व्यावहारिक रूप से लागू नहीं होती है।
उदाहरण:
- एक व्यक्ति जो केवल वर्तमान परिस्थितियों को देख सकता है, वह अपनी क्षमताओं को पूरी तरह से विकसित करने में सक्षम नहीं होगा। वह अपने सपनों को पूरा करने में सक्षम नहीं होगा।
- एक व्यक्ति जो किसी भी कौशल के बिना है, वह अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम नहीं होगा। वह अपने जीवन को नियंत्रित करने में सक्षम नहीं होगा।
- एक व्यक्ति जो केवल दूसरों पर निर्भर है, वह वास्तव में स्वतंत्र नहीं है। वह दूसरों की इच्छाओं और जरूरतों के अधीन है।
विमर्श:
- साहित्य और कलाओं में स्वतंत्रता का मुद्दा सिर्फ़ राजनीतिक सत्ता से जुड़ा नहीं होता; उसका संबंध उन तत्वों से भी होता है जो स्वयं सृजनात्मक अनुशासनों के अंदर सत्ता बनाते और पोसते हैं। साहित्य हो, या संगीत और ललित कलाएं, रंगमंच या नृत्य, हरेक विधा में कुछ सीमाएं और मर्यादाएं हमेशा सक्रिय रहती हैं। एक तरह से वे ही उनके आंतरिक अस्तित्व में सत्ता की भूमिका निभाती हैं। ये बंदिशें कई तरह की हो सकती हैं: यथार्थ-समाज-समय को चित्रित करने से लेकर नैतिकता और सामाजिक वर्जनाओं तक। रागों में वर्जित स्वरों से लेकर रंगमंच पर कुछ मानवीय कर्म न दिखाने तक। साहित्य और कलाओं को समाज में, अकादमिक जगत में, आलोचना में कैसे समझा-समझाया जा रहा है इसका भी स्वतंत्रता पर प्रभाव पड़ता है।
- कई बार साहित्य को अपने आप अपनी शक्ति और संभावना के बल पर खड़े होने और मान्य किए जाने की अनुमति या अवकाश नहीं दिया जाता है। साहित्य भी विचार की एक वैध विधा है, कि वह भी मानवीय स्थिति-नियति-संभावना-विकल्प पर अपने ढंग से विचार करता है। यह और बात है कि अक्सर साहित्य स्वयं आत्मविश्वास के साथ अपने विचार की विधा होने की प्रार्थना नहीं करता और अन्य वैचारिक अनुशासन उसे विचार की एक स्वतंत्र विधा मानने से इनकार करते या कतराते रहते हैं।
- इस संदर्भ में साहित्य की स्वतंत्रता का क्या अर्थ या प्रतिफलन हो सकता है। स्वतंत्रता कल्पना और कौशल के बिना कहीं भी संभव नहीं। कल्पना किसी कृति या लेखक को उन सीमाओं का अतिक्रमण करने में मदद कर सकती है जो उसकी स्वतंत्रता के, किसी न किसी तरह से, आड़े आती हैं। कल्पना एक नया मार्ग, जोखिम भरा सही, सुझा सकती है। कल्पना यह भी कर सकती है कि वह सीमाओं का पुनराविष्कार कर उन्हें इतनी लचीली बना दे कि उनमें कुछ नया और अप्रत्याशित करना संभव हो। सीमा को संभावना में बदलने का यह उपक्रम जब-जब होते हम देख सकते हैं।
- हर व्यक्ति की दृष्टि अद्वितीय हो सकती है और उसे किसी और व्यापक दृष्टि में विलय करने का प्रलोभन भी प्रबल हो सकता है। ऐसा विलय स्वतंत्रता के विषेध जैसा है। लेकिन बिरले होते हैं, मगर होते हैं, जो अपनी दृष्टि से अद्वितीयता को, वह मान्य-स्वीकार्य-लोकप्रिय हो, न हो, बचाए रखते हैं। वे ही सृजन में स्वतंत्र कहे जा सकते हैं।
- परम स्वतंत्रता न तो जीवन में संभव है और न ही सृजन में। फिर भी सृजन में ऐसी स्वतंत्रता पा सकना संभव है जो व्यापक जीवन में नहीं मिलती या मिल सकती। इसमें दो राय नहीं कि हमारा समय ऐसा है जिसमें साहित्य और कलाओं की ज़्यादातर उपेक्षा या अवहेलना हो रही है। राजनीतिक सत्ता, मीडिया और स्वयं अकादमिक जगत ने ऐसा माहौल बना दिया है जिसमें साहित्य और कलाएं मायने नहीं रखतीं।
- ऐसे में इन माध्यमों की स्वतंत्रता या कि उनमें स्वतंत्रता को बचाने-बढ़ाने की कोशिश अप्रासंगिक लग सकती है। पर इसे ऐसे भी देखा जा सकता है कि जब व्यापक जीवन में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष शिथिल पड़ रहा है, साहित्य और कलाओं में ऐसा संघर्ष अथक और अविराम चल रहा है।