- साहित्य के लक्ष्य को लेकर बहस का एक लंबा सिलसिला है। ऐसा लक्ष्य उसकी सार्थकता और औचित्य के लिए अनिवार्य है। दूसरी ओर यह भी कहा गया है कि पूर्वनिर्धारित लक्ष्य कई बार साहित्य को नीरस, उबाऊ और पूर्वानुमेय बना देता है. फिर यह भी सवाल उठता है कि लक्ष्य परिणति में है या कि प्रक्रिया में?
- लक्ष्य दृष्टि से संयमित-नियमित होता है। क्या कोई कृति सर्जनात्मक प्रक्रिया के दौरान अपने ताप-गतिशीलता और उत्तेजना से लक्ष्य निर्धारित कर लेती है? जैसे सच्चाई की बहुलता है, क्या वैसे ही लक्ष्य की बहुलता भी होती है? एक लक्ष्य अक्सर अपनी तानाशाही की ओर ले जा सकता है. शाश्वत लक्ष्य के साथ-साथ समकालीन स्थिति के संदर्भ में कई उपलक्ष्य भी ज़रूरी हो जाते हैं। अगर लक्ष्य पहले से दिया हो तो क्या उसमें भटकने का अवकाश संभव है?
- महत्वपूर्ण कृतियां सीधी रेखा में नहीं चलतीं बल्कि भटककर, विपथगामी होकर अपना अर्थ और परिणति अर्जित करती हैं। क्या कई बार लक्ष्यहीन स्वतंत्रता अधिक काम्य और सृजनगर्भा नहीं होती? साहित्य की, किसी भी समय, कई समान रूप से वैध, कई भूमिकाएं हो सकती हैं: वह गवाह या हिस्सेदार या तटस्थ या ज़िम्मेदार या यह सभी हो सकता है।
- 1948 में भारत आज़ाद और विभाजित हो चुका था, गांधीजी की हत्या हुई थी और संविधान सभा में भारत के नए संविधान पर विचार-विमर्श हो रहा था। उन्होंने उसमें ‘दीनता’ और ‘परमुखापेक्षिता’ से मुक्ति, ‘सामाजिक और आध्यात्मिक गुलामी’ से मुक्ति, साहित्य के ‘तेजोद्दीप्त’, ‘परदुःखकातर’ और ‘संवेदनशील’ होने पर इसरार किया और ‘इतिहास की अभद्र व्याख्या’ से अलग ‘सबसे ऊपर मनुष्य’ होने की दृष्टि प्रगट की। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि द्विवेदी जी अपने समकालीन संदर्भ में मौजूद समस्याओं को इस तरह संबोधित कर रहे थे।
- तब से अब तक साहित्य में बहुत कुछ हो चुका है। सौंदर्य और संघर्ष के बीच के शाश्वत द्वंद्व को संघर्ष द्वारा सौंदर्य के अपदस्थ किए जाने के सरलीकरण में घटाया जा चुका है. यह भी व्यापक रूप से माना जाने लगा है कि साहित्य में मुक्ति तब तक सार्थक नहीं जब तक साहित्य से बाहर अधिक व्यापक मुक्ति का वह एक संस्करण न हो।
- इस बीच कुछ मिथक भी ध्वस्त हुए हैं: यह धारणा कि शिक्षा से लोग अधिक उदार और सहनशील बनते हैं, हिंदी अंचल में रोज़ाना शिक्षितों द्वारा हिंसा-हत्या-लिंचिंग आदि में शामिल होने से झूठी साबित हो रही हैं. इसका भी कोई साक्ष्य नहीं है कि साहित्य के पाठक संकीर्णता-हिंसा-घृणा से मुक्त या बच पाते हैं।
- आज साहित्य का लक्ष्य इकहरा नहीं हो सकता। झूठ-घृणा-हत्या-हिंसा-बलात्कार आदि के बुलडोज़ी दौर में इन सबका प्रतिरोध करते हुए साहित्य को सत्याग्रह होना चाहिए: सच बोलकर, सच पर अड़े रहकर, निर्भय होकर। जैसा कि द्विवेदी ने चाहा था, साहित्य को आज परदुःखकातरता, संवेदनशीलता, सहानुभूति और साझी मनुष्यता पर इसरार करना चाहिए. इधर ‘इतिहास की अभद्र व्याख्याएं’ बहुत बढ़ और संस्थागत रूप ले चुकी हैं। सार्वजनिक संवाद हिंदी में बहुत अभद्र हो चुका है. इन बौद्धिक और वाग्हिंसाओं का सशक्त प्रतिकार होना चाहिए।
- संस्कृति को व्यापक रूप से तमाशा बनाकर भारतीय सभ्यता के मूल तत्वों के साथ आचरण और विचार दोनों में विश्वासघात और द्रोह किया जा रहा है. बहुलता, खुलापन, ग्रहणशीलता, वादविवादसंवाद, प्रश्नांकन, असहमति, विकल्प-चेतना आदि को बचाने-पोसने-बनाए रखना साहित्य का आज धर्म है। हम पर नए क़िस्म की अधिक चतुर-चपल, साधनसंपन्न, बौद्धिक, सामाजिक, तकनीकी, आध्यात्मिक गुलामी लादी जा रही है।
- घृणा-हिंसा-भेदभाव की नई सामुदायिकता विकसित हो रही है. धर्मांधता, सांप्रदायिकता, जाति विद्वेष और भेदभाव लगातार फैल रहे और लोकप्रिय हो रहे हैं। समाज का, हिंदी समाज का एक बड़ा और प्रभावशाली हिस्सा, इस सबमें शामिल है. साहित्य इस समय नैतिक और आध्यात्मिक, सामाजिक और सभ्यतामूलक तभी हो सकता है जब वह अपने समाज का प्रतिपक्ष बने।
- आज सभी धर्म भयानक रूप से राजनीति के पिछलगुआ हो गए हैं और अपने ही अध्यात्म से विमुख. ऐसी विकट स्थिति में साहित्य को एक तरह का आध्यात्मिक शरण्य हो सकना चाहिए।
- साहित्य की इतनी उदात्त भूमिका तभी संभव है जब उसमें स्मृति, कल्पना, साहस, अंतःकरण और अकेले और निहत्थे पड़ जाने का जोखिम उठा सकने की शक्ति हो. साहित्य को अपनी शर्तों पर साहित्य बने रहने का अवकाश मिल पाना कभी आसान नहीं रहा है. आज तो और भी कठिन है।