अध्ययन में मानवीय संवेदना की जरूरत

विमर्श क्यों:

  • भारत में सामाजिक ज्ञान के शास्त्र को समाज विज्ञान कहते हैं। हमारे यहां सामाजिक ज्ञान की यह विधा औपनिवेशिक ज्ञान की पद्धतियों एवं परिप्रेक्ष्यों के तहत विकसित हुई है। इसके कारण यह एक प्रकार की उदासीन शुष्कता का शिकार है। इसमें जिस समाज को समझने का दावा है, उसके प्रति संवेदना की मात्रा न्यूनतम है।

समाधान:

  • इस समस्या को समझते हुए 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020' संवेदना युक्त सरल, सहज सामाजिक ज्ञान की परिकल्पना करते हुए अंत: अनुशासनिकता एवं बहु अनुशासनिकता पर जोर तो देती ही है।
  • यह नीति उदार कला एवं सहज बहुमुखी सामाजिक ज्ञान को विकसित करने के लिए भारतीय विश्वविद्यालयों, आईआईटी एवं ‘लिबरल’ कला एवं ‘लिबरल’ अध्ययन को प्रोत्साहित करने का सुझाव भी देती है।
  • इसमें विज्ञान, तकनीकी एवं प्रबंधन की शिक्षा को ‘लिबरल’ स्टडीज से जोड़ने का सुझाव दिया गया है, साथ ही भारतीय विश्वविद्यालयों में सामाजिक विज्ञान की शिक्षा एवं शोध को एक प्रकार से सहज, जीवनोन्मुखी, समाज सापेक्ष एवं रचनात्मक बनाने का प्रस्ताव भी किया गया है।
  • इन सुझावों के आधार पर अनेक आईआईटी एवं आईआईएम ने अपने यहां ‘लिबरल’ स्टडीज या ‘लिबरल’ आर्ट्स का कोर्स शुरू कर दिया है।

‘लिबरल’ स्टडीज से जुडी समस्या:

  • केंद्रीय विश्वविद्यालयों में परिवर्तन की यह गति अभी धीमी है। सामाजिक ज्ञान के इस ‘लिबरल’ स्वरूप को समझने में हमें कहीं दिक्कत हो रही है।
  • निजी क्षेत्र में भी अनेक विश्वविद्यालयों ने पहल करते हुए अपने यहां ‘लिबरल’ स्टडीज के कोर्स विकसित एवं लागू किए हैं। लेकिन उनकी समस्या दरअसल यह है कि उनके पाठ्यक्रम ज्यादातर पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों से प्रभावित हैं।
  • लिबरल’ स्टडीज पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों में एक बहुत ही लोकप्रिय कोर्स है, किंतु ज्ञान का यह अनुषंग वहां मूलतः पश्चिमी समाजों के अनुभवों एवं वहां उपजे सिद्धांतों पर आधारित है।
  • औपनिवेशिक शिक्षा के प्रभाव में हमारा सामाजिक विज्ञान अत्याधिक सकारात्मकता का शिकार हो संवेदना से कट गया एवं अत्यधिक विशिष्टता के प्रभाव में आकर अनुशासनिक कट्टरता का शिकार हुआ।

आवश्यकता क्या है?

  • ‘लिबरल’ स्टडीज का आधार मूलतः भारतीय गुरुकुल पद्धतियों में पाया जा सकता है, जहां ज्ञान की अवधारणा में परंपरा, संस्कृति, मूल्य, तकनीकी, तर्क, शास्त्र, विवेचना, निरुक्त सब कुछ शामिल थे; जबकि संवेदना से युक्त ऐसे सामाजिक अध्ययन के पठन-पाठन एवं शोध की परंपरा शुरू करने की आवश्यकता है, जो भारतीय जमीन एवं संवेदनात्मक परिवेश से जुड़ी हो। इसके लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को पहल करते हुए संवेदनायुक्त अंतर्विषयक एवं उदार सामाजिक ज्ञान की एक मॉडल रूपरेखा विकसित करनी होगी।
  • भारत में सामाजिक ज्ञान को संवेदना से जोड़ने के लिए बहुत जरूरी है कि उसे साहित्य से जोड़ा जाए। देश में हमारी जो ज्ञान परंपरा रही है, उसमें साहित्य का बहुत महत्व रहा है, लेकिन पश्चिमी आशावाद के प्रभाव में देश में जो समाज विज्ञान औपनिवेशिक विश्वविद्यालयों में विकसित हुआ, उसमें साहित्य एवं संवेदना की भूमिका लगातार नगण्य होती गई। हमने सामाजिक विज्ञान के शिक्षण एवं शोध को धीरे-धीरे साहित्य से काट दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि हम सिर्फ मात्रात्मक आंकड़ों एवं गुणात्मक सहभागी पर्यवेक्षणों के माध्यम से ही समाज को देखने और समझने लगे।
  • सामाजिक ज्ञान की ‘लिबरल’ स्टडीज में साहित्यिक पाठ एक तो विकास एवं परिवर्तन पर अदृश्य एवं अबोलती जन प्रतिक्रियाओं को समझने में मदद करते हैं, साथ ही, इन प्रक्रियाओं से समाज में संवेदनात्मक परिवर्तनों, मोड़ों एवं लगातार होते रहने वाले क्षरण एवं निर्माण को भी अच्छी तरह से समझा जा सकता है। साहित्य के साथ लोक संस्कृतियों से जुड़ी लोककथाएं, लोकगीत, मुहावरे एवं मसले भी भारतीय समाज विज्ञान को संवेदना से जोड़ने में हमारी मदद कर सकते हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा के अनेक पाठों एवं विमर्शों को भी इसमें शामिल करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष:

  • भारतीय सामाजिक विज्ञान को रचनात्मक सामाजिक विज्ञान में तब्दील होने की आवश्यकता है। इसके लिए जरूरी है कि भारतीय सामाजिक अध्ययन में मानवीय संवेदना के तत्व शामिल हों। भारतीय ‘लिबरल’ एवं सामाजिक विज्ञान के विकास के लिए जरूरी है कि साहित्य, लोककथाएं एवं मौखिक परंपराएं तथा अन्य सामाजिक समूहों यथा दलित, महिला, युवा की रचनात्मक अभिव्यक्तियों को भी इसमें शामिल किया जाए। भारत में भारतीय किस्म का एक सहज एवं उदार सामाजिक ज्ञान विकसित करने की हमें निश्चय ही जरूरत है।

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