प्रसंग:
- बिहार में जातिगत सर्वे के आंकड़े सार्वजनिक कर दिए गए हैं और इन आंकड़ों के सामने आते ही पूरे देश में इसको लेकर सियासत गरमा गई है।
- कई राज्यों में जातिगत सर्वे कराने की मांग की जा रही है और कर्नाटक में 2015 में हुए जातिगत सर्वे के आंकड़ों को सार्वजनिक करने की मांग उठने लगी है।
ज़रुरत क्यों?
- आजादी के बाद से हमने टॉप-डाउन के विकास मॉडल को अपनाया। सोच यह थी कि विकास के लाभ ऊपरी तबके से होते हुए नीचे तक जाएंगे। पर ऐसा हुआ नहीं, नतीजतन, कमजोर वर्ग विकास की दौड़ में पिछड़ते चले गए।
रिपोर्ट के कुछ पहलू:
- बिहार में सबसे बड़ी आबादी अत्यंत पिछड़ा वर्ग की है, जो कुल आबादी के करीब 36 फीसदी है। इससे बिहार की स्थिति का तो पता चल रहा है, लेकिन पूरे देश में क्या स्थिति है, वह भी पता चलना चाहिए।
- केंद्र सरकार पर यह दबाव बढ़ जाएगा कि राष्ट्रीय स्तर पर आंकड़े तैयार करके सार्वजनिक करे, ताकि कुल आबादी में जातिगत अनुपात का पता चल सके, जिससे उनके रोजगार एवं शिक्षा में बेहतर हिस्सेदारी के लिए आवश्यक नीतियां बनाई जा सकें।
- बिहार की कुल आबादी में अत्यंत पिछड़ा वर्ग का अनुपात बढ़ गया है, जो स्वाभाविक लगता है। इसकी वजह यह है कि अत्यंत पिछड़ा वर्ग में गरीबी ज्यादा है। जो गरीब होते हैं, वे शिक्षा व जागरूकता की कमी तथा बुढ़ापे में अपनी सामाजिक सुरक्षा के लिए ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं।
- बचत के बिना में बच्चे ही उनके लिए सामाजिक सुरक्षा और बुढ़ापे का आधार होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे लोगों की समृद्धि बढ़ती है, परिवार में खुशहाली बढ़ती है, वैसे-वैसे लोग कम बच्चे पैदा करते हैं। मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग की आर्थिक स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर होती है, इसलिए वे लोग कम बच्चे पैदा करते हैं, जिससे उनकी जनसंख्या धीमी गति से बढ़ती है।
क्या किया जा सकता है?
- चूंकि अत्यंत पिछड़ी जातियों का आबादी में ज्यादा अनुपात है, इसलिए उनकी आरक्षण की मांग बढ़ जाएगी। शुरू से ही अत्यंत पिछड़ी जातियों को रोजगार और शिक्षा में ज्यादा तवज्जो दिया जाना चाहिये था।
- अगर रोजगार पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हों, तो आरक्षण से कोई फर्क नहीं पड़ता है। आरक्षण से तब फर्क पड़ता है, जब रोजगार का संकट होता है।
- समस्या इसलिए बढ़ी है कि आजादी के बाद हमने टॉप-डाउन एवं ट्रिकल-डाउन की नीति अपनाई। इसका नतीजा यह हुआ कि समाज के ऊपरी तबके को तो सभी फायदे मिले, लेकिन निचले तबके को लाभ नहीं मिला या मिला भी, तो बहुत कम।
- नई प्रौद्योगिकी ने भी बेरोजगारी बढ़ाने में कुछ योगदान दिया है। हमारे देश में रोजगार सृजन में कृषि क्षेत्र का सर्वाधिक योगदान रहा है, लेकिन ट्रैक्टर, कंबाइन हार्वेस्टर, थ्रेसर, आलू खोदने की मशीन इत्यादि का इस्तेमाल बढ़ने से रोजगार पैदा नहीं हो पा रहा है। इसके अलावा, हमारी सरकारें भी अभी ऐसी नीतियां अपना रही हैं, जिनमें संगठित क्षेत्र को तो बढ़ावा मिलता है, लेकिन असंगठित क्षेत्र (जहां ज्यादातर लोग काम करते हैं) पिछड़ता चला जा रहा है।
- उदाहरण के लिए, सरकार ने कॉरपोरेट सेक्टर को कर छूट दी, पीएलए स्कीम चलाई, जबकि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के आवंटन में कटौती कर दी। शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र के आवंटन में भी कटौती कर दी गई है, जबकि इन दोनों क्षेत्रों में ज्यादा रोजगार पैदा होता है। ज्यादातर निवेश बड़ी-बड़ी परियोजनाओं में किया जा रहा है, जहां आधुनिक प्रौद्योगिकी के जरिये मानव श्रम को विस्थापित किया जा रहा है।
विपक्ष में तर्क:
- जातिगत सर्वे के विरोधी यह तर्क देते हैं कि इस तरह के सर्वे के आंकड़ों में जिन जातियों की संख्या कम होगी, वे परिवार नियोजन की नीतियों को दरकिनार कर अपनी आबादी बढ़ाने की होड़ में लग जाएंगे। लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता। दुनिया भर में जैसे-जैसे परिवार में समृद्धि बढ़ती है, शिक्षा का स्तर बढ़ता है, लोग परिवार नियोजन को अपनाते हैं और कम बच्चे पैदा करते हैं। कम आबादी वाले समृद्ध परिवारों के लोग अपने बच्चों का भविष्य बेहतर बनाने के लिए उन्हें शिक्षा एवं रोजगार के लिए विदेश में भेजने लगेंगे और यह अब भी हो रहा है।
- बिहार के जातिगत सर्वे के आंकड़ों के राजनीतिक निहितार्थ तो स्पष्ट हैं ही और इसका राष्ट्रीय राजनीति पर भी असर पड़ना लाजिमी है। सभी राजनीतिक पार्टियां इसका अपने-अपने ढंग से इस्तेमाल करना चाहेंगी और देश में एक बार फिर से मंडल-कमंडल की राजनीति और बढ़ जाएगी। चुनावों में राजनीतिक पार्टियां आरक्षण के मुद्दे को जोर-शोर से उठा सकती हैं। आरक्षण की अधिकतम निर्धारित सीमा को बढ़ाने की भी मांग उठ सकती है।