विनिर्माण रोजगार में रुकीं वृद्धि की राहें

वर्तमान स्थिति:

दुनिया का कोई भी देश मजबूत विनिर्माण आधार के बगैर गरीबी कम करने या सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि को बनाए रखने में कामयाब नहीं हुआ है। वर्ष 1979-2014 के बीच विनिर्माण जीवीए (ग्रॉस वैल्यू एडेड) का योगदान भारत के कुल घरेलू उत्पाद में 16-18 फीसदी के बीच रहा, जो उसके बाद 2019 तक गिरकर 13 फीसदी रह गया। हालांकि उम्मीद है कि 2022-23 में इसमें सुधार होगा। इसके विपरीत, बांग्लादेश में यह आंकड़ा 2021 में बढ़कर 21 फीसदी हो गया और वियतनाम में यह 2021 में कुल उत्पाद का 25 फीसदी तक हो गया। इन देशों ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी आकर्षित किया है।

भारत में विनिर्माण रोजगार में वृद्धि नहीं हुई है, जबकि यह अत्यंत श्रम अधिशेष अर्थव्यवस्था है। ऐसे में आवश्यक है कि श्रम गहन विनिर्माण उद्योगों की अधिक से अधिक स्थापना हो, लेकिन उसके बिल्कुल विपरीत हो रहा है। देश में करीब चार करोड़ बेरोजगार हैं, और हर वर्ष श्रम बल में 50-60 लाख लोग और जुड़ रहे हैं। इस बीच कुल काम के हिस्से के रूप में विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार 2019-22 के बीच गिरकर (जीडीपी में विनिर्माण योगदान की तरह) 11.6 फीसदी से कम हो गया है। यह तब है, जब 'मेक इन इंडिया' और औद्योगिक उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना (पीएलआई) लागू की गई है।
 

उदारीकरण के बाद की नीति:
1991
के बाद से भारत में कभी कोई स्पष्ट औद्योगिक नीति या विनिर्माण रणनीति नहीं रही है। औद्योगिक नीति वक्तव्य (1991) में यह सुनिश्चित करने के उपाय बहुत कम थे कि भारत की विनिर्माण क्षमता मजबूत हो। आखिरकार 2011 में ही सरकार एक राष्ट्रीय विनिर्माण रणनीति लेकर आई, जिसके बाद 2012 में एक इलेक्ट्रॉनिक्स डिजाइन और विनिर्माण नीति बनाई गई। वर्ष 2015 में जारी 'मेक इन इंडिया' कोई औद्योगिक नीति नहीं थी, क्योंकि इसमें केवल व्यापार करने में आसानी और एफडीआई आकर्षित करने पर जोर दिया गया था।

औद्योगिक उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना (पीएलआई):
विनिर्माण क्षेत्र में एकमात्र अन्य पहल पीएलआई रही है, जिसमें कई कमियां हैं। सबसे पहले, यह क्षेत्रों के बजाय जीतने वाली कंपनियों को चुनने के लिए त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण पर आधारित है। पीएलआई के साथ दूसरी समस्या सेक्टरों के चयन की है। वित्तीय सब्सिडी प्राप्त करने के लिए चुने गए 13 क्षेत्रों में से ग्यारह पूंजी गहन हैं। भारत को अच्छी गुणवत्ता वाली अधिक औद्योगिक नौकरियों की सख्त जरूरत है; कुछ हजार अत्यधिक कुशल लोगों को छोड़कर पीएलआई से शायद ही अधिक नौकरियां निकलेंगी। हमारे देश में कम और अर्धकुशल लोगों की संख्या ज्यादा है, जिन्हें अधिक श्रम गहन क्षेत्रों में नियोजित किया जा सकता है।

तीसरा, पीएलआई स्कीम में विजेता कंपनी को चुनने में नौकरशाही को भूमिका देना लाइसेंस-परमिट राज की ओर इशारा करता है, जो बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करने वाला है। चौथा, पीएलआई की एक जबरदस्त राजकोषीय लागत है-पांच वर्षों में 1.5 अरब रुपये। यह तब है, जब राजकोषीय घाटा ऐतिहासिक ऊंचाई पर है, और कोविड वर्षों में ऋण-जीडीपी अनुपात 60 से 85 फीसदी तक बढ़ गया है। इसके अलावा, कठिन बुनियादी ढांचे में निवेश के अलावा, मानव पूंजी के लिए धन की आवश्यकता होती है। पांचवां, पीएलआई के साथ एक जोखिम यह भी है कि सब्सिडी के पांच साल पूरे होने पर लाभार्थी उद्योग और अधिक लाभ के विस्तार की मांग करेंगे।

भारत में खाद्य प्रसंस्करण, कपड़ा उद्योग, रेडिमेड कपड़े, चमड़े के जूते, लकड़ी के फर्नीचर जैसे श्रम-केंद्रित विनिर्माण क्षेत्रों में 2012 के बाद से गिरावट आई है। भारत में विनिर्माण रोजगार और कुल नौकरियां भी कम हुई हैं। भारत उस बाजार हिस्सेदारी का एक हिस्सा ले सकता है, जो चीन में बढ़ती मजदूरी के कारण अंतरराष्ट्रीय बाजारों में खो रहा है। लेकिन भारत बांग्लादेश, वियतनाम, म्यांमार और इथियोपिया से हार रहा है।

Download this article as PDF by sharing it

Thanks for sharing, PDF file ready to download now

Sorry, in order to download PDF, you need to share it

Share Download