- खराब और बेतरतीब नियोजन केवल समस्याओं को ही जन्म नहीं देता बल्कि वह शहरी जीवन को कष्टकारी भी बनाता है। इसके अतिरिक्त वह शहरों की प्रगति में भी बाधक बनता है। जब यह स्पष्ट है कि आने वाले समय में शहरों में आबादी का बोझ और बढ़ेगा तब फिर उनका नियोजन इस तरह किया जाना चाहिए ताकि उनमें नागरिक सुविधाओं का स्तर संतोषजनक बना रहे।
आवश्यकता:
- शहरों के नियोजन पर चर्चा के लिए आयोजित सम्मेलन में शहरीकरण की चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित किया जाना समय की मांग है, लेकिन अब आवश्यक यह है कि शहरों का सही तरह से नियोजन करने की ठोस रूपरेखा बने और उस पर गंभीरता से अमल भी हो। यदि शहरी जीवन को बेहतर बनाने के साथ देश को आत्मनिर्भर एवं समृद्ध बनाना है तो छोटे-बड़े शहरों को संवारने के काम को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। इसके लिए नगर निकायों समेत अन्य संबंधित विभागों को अपनी कार्यसंस्कृति में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा।
समस्या:
- शहरीकरण पर तमाम बल दिए जाने के बाद भी शहरों की सूरत संवारने का काम उस योजनाबद्ध तरीके से नहीं हो रहा है, जैसे होना चाहिए। हमारे शहर अभी भी समस्याओं से घिरे हुए हैं। इसकी एक बानगी उन शहरों में देखने को मिल रही है, जहां सामान्य से थोड़ी अधिक वर्षा हुई है। सच तो यह है कि कई ऐसे शहर भी जलभराव जनित समस्याओं से जूझ रहे हैं, जहां सामान्य वर्षा ही हुई है। स्पष्ट है कि शहरों को स्मार्ट सिटी का रूप देने के लिए अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति केंद्र सरकार से अधिक राज्य सरकारों और विशेष रूप से उनके नगर निकायों को करनी होगी।
- खराब और बेतरतीब नियोजन केवल समस्याओं को ही जन्म नहीं देता, बल्कि वह शहरी जीवन को कष्टकारी भी बनाता है। इसके अतिरिक्त वह शहरों की प्रगति में भी बाधक बनता है। जब यह स्पष्ट है कि आने वाले समय में शहरों में आबादी का बोझ और बढ़ेगा, तब फिर उनका नियोजन इस तरह किया जाना चाहिए, ताकि उनमें नागरिक सुविधाओं का स्तर संतोषजनक बना रहे। नगर नियोजन केवल नागरिक सुविधाओं को बेहतर बनाने को ध्यान में रखकर ही नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि इस दृष्टि से भी किया जाना चाहिए कि शहर अर्थव्यवस्था को गति देने का भी काम करें।
राज्यों का उत्तरदायित्व:
- राज्य सरकारें इससे अपरिचित नहीं हो सकतीं कि नगर नियोजन की योजनाओं को अमल में लाने वाली एजेंसियों का कामकाज संतोषजनक नहीं है। इन एजेंसियों की ओर से कराए जाने वाले निर्माण कार्यों की गुणवत्ता तो दोयम दर्जे की होती ही है, उनकी इंजीनियरिंग भी मानकों के अनुरूप नहीं होती। यही कारण है कि शहरीकरण की चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। इन चुनौतियों के बढ़ने का प्रमुख कारण है अनियोजित विकास। आम तौर पर शहरीकरण संबंधी योजनाएं कामचलाऊ तरीके से क्रियान्वित की जाती हैं। उनके अमल में यह मुश्किल से ध्यान रखा जाता है कि जो निर्माण आज हो रहा है, वह आगामी चार-पांच दशकों के लिए उपयोगी और टिकाऊ हो सकेगा या नहीं? चूंकि नगर नियोजन में दूरदर्शिता का अभाव है, इसलिए हमारे छोटे-बड़े शहर आबादी के बढ़ते बोझ को सहन नहीं कर पा रहे हैं।
- बाढ़ के प्रति सरकारों की अगंभीरता इसी से समझी जा सकती है कि दिल्ली में पिछले दो साल से बाढ़ नियंत्रण समिति की बैठक ही नहीं हुई।
- हमारा देश विकसित मुल्कों की सूची में शामिल होने वाला है। ऐसे में, राजधानी दिल्ली में बाढ़ और जलभराव के जो हालात बने, वे देश की छवि के लिहाज से अच्छे नहीं हैं। वैसे भी यह एक गंभीर विचारणीय प्रश्न है कि पिछले कुछ वर्षों से देश के प्रमुख राज्यों के ज्यादातर शहरों में सामान्य मानसून के मौसम में भी बाढ़ जैसे हालात क्यों बन जाते हैं। इंदौर का ही उदाहरण लें, जहां कभी 24 घंटों में 17 इंच और उससे भी अधिक पानी गिरने का रिकॉर्ड दर्ज किया गया, फिर भी बाढ़ की स्थिति पैदा नहीं हुई। लेकिन आज उससे आधी बारिश होने पर भी शहरों में चारों तरफ जलभराव और बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है। इसका मुख्य कारण यह है कि पिछले चार-पांच दशकों में देश के महानगरों में जो अकल्पनीय, अनियोजित और बेतरतीब विकास हुआ है, उसके कारण वर्षा के समय उसके दुष्परिणाम शहरी क्षेत्रों में बाढ़ के रूप में दिखने लगे हैं।
- मुंबई में भी कुछ साल पहले जब एक दिन में करीब 30 इंच बारिश हुई थी, तब वहां हालात भयावह हो गए थे। ऐसी स्थिति पैदा होने का मुख्य कारण है नदी एवं जलभराव क्षेत्रों को लेकर निर्माण की राष्ट्रीय नीति का पालन न होना। सड़कों पर वर्षाजल की निकासी के लिए जो क्रॉसिंग होनी चाहिए या तो उसका निर्माण नहीं हुआ, और यदि कहीं पर हुआ भी, तो उसका आकार इतना छोटा है कि पानी की निकासी सही प्रकार से नहीं हो पाती। देखा गया है कि 1980 के बाद देश में जितनी भी शहरी कॉलोनियां बनी हैं, उनमें से ज्यादातर में कहीं भी बरसात के पानी की निकासी पर कोई योजनाबद्ध कार्य नहीं किया गया है। फिर शहरों में बिल्डरों तथा माफिया ने शासन-प्रशासन की मिलीभगत से डूब वाले इलाकों में बस्तियां बसानी शुरू कर दी हैं। दिल्ली के यमुना क्षेत्र में बसाई गई बस्तियां इसका उदाहरण हैं, जो इन दिनों जलमग्न हैं। ऐसे हालात देश के दूसरे शहरों में भी हैं। पहले शहरों में नदियों के किनारे जो खुले मैदान होते थे, अब वहां केवल भवन और गैरकानूनी बस्तियां दिखती हैं।
- देश के नगरों-महानगरों में नगर विकास प्राधिकरण हैं, जिनकी जिम्मेदारी होती है भवन निर्माण, सड़क, जल निकासी तथा अन्य जन सुविधा के कार्यों की योजना बनाना तथा इनका निर्माण करवाना। परंतु इस बार की बाढ़ देखकर लगता नहीं कि दिल्ली विकास प्राधिकरण ने अपने कार्य क्षेत्र में योजनाबद्ध तरीके से भवन निर्माण और पानी निकासी का कोई काम किया है। सर्वोच्च न्यायालय तथा उसके आसपास के पूरे क्षेत्र में पानी निकासी की उचित व्यवस्था न होने के कारण वहां के निवासियों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
- बाढ़ के प्रति सरकारों की अगंभीरता इसी से समझी जा सकती है कि दिल्ली में पिछले दो साल से बाढ़ नियंत्रण समिति की बैठक ही नहीं हुई! इस समिति में दिल्ली और केंद्र सरकार, सेना व केंद्रीय जल आयोग सहित विभिन्न एजेंसियों के बीच समन्वय सुनिश्चित किया जाता है। इस उपेक्षा का नतीजा है कि दिल्ली के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भीषण जलभराव हुआ और गलियों में नावों के जरिये जरूरी सामान जनता तक पहुंचाने की नौबत आई। इस तरह के हालात हालांकि अन्य राज्यों में भी हैं।
- निष्कर्ष:
जागरूक व्यवस्था की जिम्मेदारी है कि किसी भी प्राकृतिक आपदा के बाद वह इसकी जांच करे कि आखिर किन वजहों से इन आपदाओं ने जनजीवन को बुरी तरह प्रभावित किया। लिहाजा इस साल राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली समेत दूसरे शहरों में आई बाढ़ के बाद जरूरी है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक अध्ययन दल का गठन किया जाए, जो यह पता लगाए कि सामान्य से ज्यादा बारिश होने से शहरी इलाकों में बाढ़ की स्थिति क्यों पैदा हुई। यदि भारतीय सेना में इस प्रकार का कोई हादसा होता है, तो वहां जांच यह तय करती है कि इस हादसे को रोकने की जिम्मेदारी किसकी थी और उसके बाद जिम्मेदारी तय कर संबंधित अधिकारी के विरुद्ध सख्त से सख्त कानूनी कार्रवाई की जाती है। यदि प्रशासनिक व्यवस्था में कार्यरत अधिकारियों के विरुद्ध भी ऐसे ही प्रावधान हों, तो भविष्य में दिल्ली, गाजियाबाद और आगरा जैसी बाढ़ की स्थिति देश के किसी भी शहर में पैदा नहीं होगी।