राज्यों के बीच जल विवाद

प्रसंग:

  • कावेरी के पानी को लेकर तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच का यह विवाद सिर्फ बहुत पुराना है, बल्कि निचली अदालतों से उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के बावजूद यह विवाद नहीं सुलझा है। वर्ष 2018 में अदालत ने कर्नाटक को प्रतिदिन तमिलनाडु के लिए 5,000 क्यूसेक पानी छोड़ने के लिए कहा था। इसी को लेकर कर्नाटक में विरोध है।

मतभेद से विवाद तक:

  • किसी परिसंघीय ढांचे में जहां संघ और राज्य एक ही लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्य करते हों और सभी के पास संसाधनों की मात्रा अलग-अलग हो, तो कई अवसरों पर मतभेद होना स्वाभाविक है। हालांकि मतभेद लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक अनिवार्य गुण है, क्योंकि तभी सहमति आधारित निर्णय विकास में सभी की सहभागिता सुनिश्चित करता है, लेकिन जब भी मतभेद लंबे समय तक बना रहता है, वह विवाद का रूप ले लेता है। ऐसी ही स्थिति राज्यों के बीच विवादों की बनती है, जिसमें विशेषकर नदी जल की साझेदारी का मुद्दा सबसे गंभीर है। लंबे समय से कई नदियों, जैसे कावेरी, गोदावरी, कृष्णा, महादयी, पेन्नैयार आदि के विवाद चल रहे हैं।
  • इस तरह के विवादों के समाधान में केंद्र सरकार की अहम भूमिका होती है, क्योंकि भारत के राजनीतिक ढांचे की विशेषता यह है कि इसका चरित्र परिसंघीय है, लेकिन इसकी आत्मा एकात्मक है। अर्थात यहां संसाधनों के आवंटन के लिए संघ उत्तरदायी है, जबकि उनके वितरण के लिए राज्य। ऐसी स्थिति में राज्यों के बीच विवाद उत्पन्न होने पर संघ का सांविधानिक कर्तव्य हो जाता है कि वह उनका समाधान करे।

जल विवाद की संवैधानिक स्थिति:

  • जल की साझेदारी को लेकर विवाद सबसे गहरा है। संविधान के अनुच्छेद 262 में इसी आधार पर केंद्र सरकार को कानून बनाने की शक्ति दी गई है। अंतर-राज्यीय जल विवाद अधिनियम, 1956 और नदी बोर्ड अधिनियम, 1956 इसी शक्ति के प्रयोग के परिणाम हैं। इस कानून की धारा-4 एक न्यायाधिकरण के रूप में विवाद समाधान प्रक्रिया प्रदान करती है। अधिनियम की धारा 5 (2) के अनुसार, न्यायाधिकरण केवल निर्णय देगा, बल्कि केंद्र सरकार द्वारा उसे भेजे गए मामलों की जांच भी करेगा और अपने निर्णयों के साथ तथ्यों को स्थापित करते हुए एक रिपोर्ट अग्रसारित करेगा।
  • न्यायाधिकरण की जिम्मेदारी संबंधित राज्यों द्वारा उठाए गए मुद्दों के निर्णय तक सीमित नहीं है, सार्वजनिक डोमेन में मौजूद अन्य पहलुओं जैसे जल प्रदूषण, नमक निर्यात आवश्यकता, जल की गुणवत्ता में गिरावट, बाढ़ नियंत्रण, नदी की स्थिरता की जांच तक ही सीमित नहीं है। जब मसौदा फैसले पर विचार-विमर्श के आधार पर जारी किए गए न्यायाधिकरण के अंतिम फैसले को केंद्र सरकार द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है और आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचित किया जाता है, तो फैसला कानून बन जाता है और कार्यान्वयन राज्यों और केंद्र सरकार के लिए बाध्यकारी हो जाता है।
  • यदि किसी भी तरह से न्यायाधिकरण के फैसले से राज्यों के सांविधानिक अधिकारों का हनन होता है, तो केंद्र सरकार न्यायाधिकरण के फैसले को आधिकारिक गजट में प्रकाशित करने से पहले संविधान के अनुच्छेद 252 के तहत संसद और सभी तटवर्ती राज्यों की सहमति लेने के लिए बाध्य है।
  • इस अधिनियम की धारा 6 के तहत, केंद्र सरकार किसी न्यायाधिकरण के निर्णय को प्रभावी बनाने के लिए कोई योजना बना सकती है। प्रत्येक योजना में न्यायाधिकरण के फैसले के कार्यान्वयन के लिए एक प्राधिकरण स्थापित करने का प्रावधान है। संविधान के अनुच्छेद 53 और 142 के अनुसार, यह राष्ट्रपति का कर्तव्य है कि वह न्यायाधिकरण/उच्चतम न्यायालय के आदेश/फैसले को बिना विलंब के लागू करे, जब तक कि संसद इस अधिनियम की धारा 6 के तहत, पहले से स्थापित कार्यान्वयन बोर्ड या प्राधिकरण के विरुद्ध निर्णय ले ले या उसमें संशोधन कर दे।

वर्तमान स्थिति:

  • वर्तमान में वंशधारा जल विवाद न्यायाधिकरण के फैसले और उस पर उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद ओडिशा ने एक विशेष अनुमति अपील याचिका दायर की है और यह मामला उच्चतम न्यायालय में लंबित है। इसी प्रकार कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण के फैसले को लागू करने के लिए केंद्र सरकार ने वर्ष 2018 में प्राधिकरण का गठन किया था।
  • पिछले साल दिसंबर में, शीर्ष न्यायालय ने पेन्नैयार नदी जल विवाद को सुलझाने के लिए न्यायाधिकरण गठित करने के लिए केंद्र को तीन महीने की समय सीमा दी थी, जिसे मई में एक महीने के लिए बढ़ा दिया गया था। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2018 में तमिलनाडु ने नदी पर चेक डैम और डायवर्जन संरचनाओं पर कर्नाटक के काम के विरुद्ध न्यायालय की शरण ली थी।
  • संघ सूची की प्रविष्टि 56 में केंद्र को नदी घाटी के नियमन के लिए, जबकि राज्य सूची की प्रविष्टि 17 में राज्य को पेयजल के विषय पर कानून बनाने की शक्ति है। स्वाभाविक रूप से केंद्र के विषय को ही प्राथमिकता मिलती है। केंद्र की ओर से योजना या प्राधिकरण स्थापित कर फैसलों को लागू करने का प्रयास किया जा रहा है। राज्यों के बीच समन्वय की कमी इस समस्या के समाधान में बड़ा व्यवधान है।

निष्कर्ष:

  • अंतर-राज्यीय परिषद को विशेषकर इन मामलों पर प्रभावकारी रूप से कार्य करने की आवश्यकता है। प्रतिस्पर्धी राजनीति और क्षेत्रीय राजनीति ने इन समस्याओं को और भी गहरा कर दिया है। क्षेत्रीय सरकारों को इस बात पर ध्यान देना होगा कि दलगत राजनीति से कहीं अधिक महत्वपूर्ण सरकार का संस्थागत प्रयास होता है। जनहित को वरीयता देना उनका नैतिक दायित्व है और सांविधानिक बाध्यता भी।
  • इस संदर्भ में एक अंतर-राज्यीय जल परिषद का गठन भी तार्किक प्रयास होगा, जिसमें इन्हीं मुद्दों पर राज्यों के बीच संघ के निर्देशों के अनुरूप सहमति बनाने में सहायता मिल सकेगी। राजनीतिक असहमति लोकतंत्र की परिपक्वता का अच्छा उदाहरण है, लेकिन जब असहमति जनहित को नकारात्मक रूप में प्रभावित करने लग जाए, तो वह लोकतंत्र की कमजोरी का कारण बन सकता है।

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